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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका * अर्थ-( भंते ! ) हे भगवन् ! मैंने ( समाहित्ति-काउस्सग्गो कओ) समाधिभक्ति सम्बंधी कायोत्सर्ग किया ( तस्स आलोचेउं ) उस सम्बन्धी आलोचना करने की ( इच्छामि ) इच्छा करता हूँ ( रयणत्तयपरूवपरमप्पज्झाणलक्खण-समाहिभत्तार ) इस समाधिभक्ति में रत्नत्रय को निरूपण करने वाले शुद्ध परमात्मा के ध्यान रूप शुद्ध आत्मा की मैं ( पिच्चकालं अच्चेमि पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि ) नित्यकाल, सदा अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ ( दुक्खक्खओ ) मेरे दुःखों का क्षय हो ( कम्मक्खओ ) कर्मों का क्षय हो ( बोहिलाहो ) रत्नत्रय की प्राप्ति हो ( सुगइगमणं ) उत्तम गति में गमन हो ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो तथा ( जिणगुणसंपत्ति होऊ मझं ) जिनेन्द्रदेव के गुणोंरूपी सम्पत्ति की मुझे प्राप्ति हो। ___ भावार्थ-हे भगवन् ! मैंने समाधिभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया अब उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ । समाधिभक्ति में रत्नत्रय के प्ररूपक शुद्ध परमात्मा के ध्यानरूप विशुद्ध आत्मा की मैं सदा अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन व समाधिमरण हो तथा वीतराग जिनदेव के महागुणरूपी सम्पत्ति की मुझे प्राप्ति हो।
।। इति-समाधिभक्तिः ।।