Book Title: Vimal Bhakti
Author(s): Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 387
________________ ३८३ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका * अर्थ-( भंते ! ) हे भगवन् ! मैंने ( समाहित्ति-काउस्सग्गो कओ) समाधिभक्ति सम्बंधी कायोत्सर्ग किया ( तस्स आलोचेउं ) उस सम्बन्धी आलोचना करने की ( इच्छामि ) इच्छा करता हूँ ( रयणत्तयपरूवपरमप्पज्झाणलक्खण-समाहिभत्तार ) इस समाधिभक्ति में रत्नत्रय को निरूपण करने वाले शुद्ध परमात्मा के ध्यान रूप शुद्ध आत्मा की मैं ( पिच्चकालं अच्चेमि पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि ) नित्यकाल, सदा अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ ( दुक्खक्खओ ) मेरे दुःखों का क्षय हो ( कम्मक्खओ ) कर्मों का क्षय हो ( बोहिलाहो ) रत्नत्रय की प्राप्ति हो ( सुगइगमणं ) उत्तम गति में गमन हो ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो तथा ( जिणगुणसंपत्ति होऊ मझं ) जिनेन्द्रदेव के गुणोंरूपी सम्पत्ति की मुझे प्राप्ति हो। ___ भावार्थ-हे भगवन् ! मैंने समाधिभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया अब उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ । समाधिभक्ति में रत्नत्रय के प्ररूपक शुद्ध परमात्मा के ध्यानरूप विशुद्ध आत्मा की मैं सदा अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन व समाधिमरण हो तथा वीतराग जिनदेव के महागुणरूपी सम्पत्ति की मुझे प्राप्ति हो। ।। इति-समाधिभक्तिः ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444