________________
३९८
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
( द्रोणीमति) द्रोणगिरि ( प्रवस् - कुण्डल- मेढ्रके च ) प्रकृष्ट कुण्डलगिरि और गिरि ( वैभार-पर्वततले ) वैभारपर्वत के तलभाग में ( वर सिद्धकूटे ) उत्कृष्ट सिद्धकूट- सिद्धवरकूट में ( ऋषि- अद्रिके ) ऋषि याने श्रमणों का पर्वत श्रमणगिरि-सोनागिरि ( विपुलाद्रि - बलाहके च ) विपुलाचल व बलाहक पर्वत ( विन्ध्ये ) विन्ध्याचल में ( वृषदीपके पौदनपुरे च ) और धर्म को प्रकाशित करने वाले पोदनपुर में ।
(सह्याचले ) सह्य पर्वत ( सुप्रतिष्ठे हिमवति अपि ) अतिप्रसिद्ध हिमालय पर्वत ( दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ । दण्डाकार गजपंथा और वंशस्थ पर्वत पर ( ये साधव: ) जो साधु ( हतमलाः } कर्मों का क्षय कर ( सुगतिं प्रयात्ताः) उत्तम सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं ( जगति ) संसार में ( तानि स्थानानि ) वे सभी स्थान ( प्रथितानि अभूवन् ) प्रसिद्ध हुए ।
भावार्थ - घातिया - अघातिया कर्मों को क्षय करने वाले युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तीनों भाई विशाल शत्रुञ्जय पर्वत से मुक्त हुए। बाह्यअभ्यन्तर २४ परिग्रहों से रहित बलदेव, तुंगीगिरि सिद्धक्षेत्र से मुक्त हुए । द्रव्य भाव कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करने वाले सुवर्णभद्र मुनिराज नदी के किनारे से ( पावागिरि पर्वत के समीप चेलना नदी के किनारे से ) मुक्त हुए, द्रोणगिरि पर्वत, कुण्डलाकार कुण्डलगिरि, मेद्रागिरि ( मुक्तागिरि ) वैभार पर्वत, उत्तम सिद्धवरकूट, श्रमणगिरि, विपुलाचल, बलाहक पर्वत, विन्ध्याचल, धर्म प्रकाशक पोदनपुर, सह्यपर्वत, अत्यधिक प्रसिद्ध हिमालय पर्वत, दण्डाकार गजपंथा और वंशस्थ पर्वत पर जो-जो दिगम्बर सन्त शुभाशुभ 'कर्मों का क्षयकर मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए हैं, लोक में ये सभी सिद्धक्षेत्र प्रसिद्धि को प्राप्त हुए, पूज्यता को प्राप्त हुए हैं I इक्षोर्विकार रसपृक्त गुणेन लोके,
पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यद्वत् ।
तद्वच्च पुण्यपुरुष- रुषितानि नित्यं,
स्थानानि तानि जगतामिह पावनानि ।। ३१ ।
अन्वयार्थ - ( यद्वत् ) जिसप्रकार ( लोके ) लोक में ( इक्षोः विकार रसपृक्त गुणेन ) ईख के / गन्ना के रस से निर्मित मिष्ट. शक्कर या गुड़ से मिश्रित (पिष्ट: ) आटा ( अधिकं मधुरताम् ) अधिक मधुरता को (उपयाति )