Book Title: Vimal Bhakti
Author(s): Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 409
________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ४०५ नन्दीश्वर भक्ति ___आर्यागीतिः त्रिदशपतिमुकुट तट गतमणि, गणकर निकर सलिलधाराधौत । क्रमकामना मानजिनाहि रुचिर, प्रतिबिम्बविलय विरहितनिलयान् ।।१।। निलयानहमिह महसां सहसा, प्रणिपतन पूर्वमवनौम्यवनौ । त्रय्यां त्रय्या शझ्या निसर्ग, शुद्धान्विशुद्धये घनरजसाम् ।। २।। अन्वयार्थ—( इह ) यहाँ ( त्रय्याँ ) तीनों लोकों में ( महसां निलयान्) जो तेज के गृह हैं ( निसर्ग शुद्धान् ) स्वभाव से शुद्ध हैं ( त्रिदशपतिमुकुट-तटगत-मणिगण-कर-निकर-सलिल धारा धौतक्रम-कमल-युगलजिनपति-रुचिर-प्रतिबिम्ब-विलय-विरहित-निलयान् ) इन्द्रों के मुकुटों के किनारे पर लगी मणिसमूह के किरण कलापरूपी जल की धारा से प्रक्षालित चरण-कमल युगल वाले जिनेन्द्र की मनोज्ञ सुन्दर प्रतिमाओं के विनाश रहित, अविनाशी जिनमन्दिरों को ( सहसा ) शीघ्र ( अवनौ ) पृथ्वी पर ( प्रणिपतनपूर्वम् ) गिरकर ( अय्याशुद्ध्या ) मन-वचन-काय की शुद्धि से ( घनरजसाम् विशुद्धये ) सुदृढ़ कर्म पटल/कर्मरज की विशुद्धि के लिये अर्थात् कर्मक्षयार्थं ( अवनौमि ) नमस्कार करता हूँ। भावार्थ—इन्द्रों के मुकुटों के तट पर लगी हुई मणियों के किरणों के समूहरूपी जलधारा से प्रक्षालित हैं चरण-युगल ऐसी समस्त-तीन लोक सम्बन्धी अकृत्रिम, अविनाशी मनहर सुन्दर जिनप्रतिमाओं, जिनमन्दिरों को मैं मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक, ज्ञानावरण आदि कर्मों की रज को दूर करने के लिये, पृथ्वी से मस्तक का स्पर्श करते हुए नमस्कार करता हूँ । अर्थात् जिन चरण-युगलों में सौ इन्द्र सदैव मस्तक रखकर नमस्कार करते हैं, उन अविनाशी वीतराग जिनबिम्बों व जिनालयों को मेरा मस्तक झुकाकर नमस्कार है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444