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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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परम्परा का विच्छेद करने में समर्थ हैं । हे प्रभो! आप के चरण-कमल ही मेरे लिये एकमात्र शरण हैं। ये ही मेरे रक्षक हैं। मेरी भव बाधा को हरने वाले भी ये ही हैं ।
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात् कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ।। १५ ।।
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अन्वयार्थ - ( जिनेश्वर ! ) हे जिनदेव ! ( मम ) मेरे ( अन्यथा ) अन्य प्रकार से ( शरणं न अस्ति ) शरण-रक्षा नहीं हैं ( त्वम् एव शरणं ) आप ही मेरे लिये शरण हैं । ( तस्मात् ) इसलिये ( कारुण्यभावेन ) करुणा भाव से ( रक्ष रक्ष ) मेरी रक्षा कीजिये ।
भावार्थ - हे वीतराग स्वामिन्! इस दुःखद संसार में आप ही मेरे शरण हैं, आप ही मेरे रक्षक हैं। आपको छोड़कर मेरा कोई अन्य शरण नहीं, रक्षक नहीं। प्रभो ! अतः मुझ पर करुणा कीजिये । कारुण्य भाव में मुझे शरण दीजिये, मेरी रक्षा कीजिये ।
नहित्रांता नहित्राता, नहित्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ।।१६।।
अन्वयार्थ - - ( जगत्त्रये ) तीनों लोकों में ( नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता ) आपके सिवाय अन्य कोई रक्षक नहीं है, रक्षक नहीं है, रक्षक नहीं है ( वीतरागत् परः देवः ) वीतराग से भिन्न अन्य कोई देव ( न भूतो ) भूतकाल में नहीं हुआ ( न भविष्यति ) न भविष्य में होगा ।
भावार्थ — हे वीतराग प्रभो ! तीनों लोकों में आपको छोड़कर अन्य कोई भी मेरा रक्षक नहीं है, नहीं है, नहीं है। वीतराग देव ही महादेव / देवाधिदेव हैं । इनसे बढ़कर अन्य कोई देव न भूतकाल में वर्तमान में कोई है और न ही भाविकाल में कोई होगा । जिनेभक्ति - जिने भक्ति जिने भक्ति दिने दिने । सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु भवे भवे ।। १७ । ।
हुआ, न
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अन्वयार्थ - ( भवे भवे ) भव भव में ( दिने दिने ) प्रतिदिन ( मे ) मेरी ( जिनेभक्ति: जिनेभक्ति: जिनेभक्तिः ) जिनेन्द्रदेव में भक्ति हो, जिनेन्द्रदेव में भक्ति हो, जिनेन्द्रदेव में भक्ति हो । ( सदा मे अस्तु सदा में अस्तु, सदा मे अस्तु ) मेरी भक्ति जिनदेव में सदा हो, सदा हो, सदा हो ।
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