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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३९३ अन्वयार्थ ( इति एवं ) इस प्रकार ( भगवति वर्धमान चन्द्रे ) भगवान् महावीर से सम्बन्धित ( स्तोत्रं ) स्तोत्र को ( यः ) जो ( द्वयोः हि ) दोनों ही ( सुसन्ध्ययोः पठति ) सन्ध्याओं से पढ़ता हैं ( स: ) वह ( नृ-देवलोके ) मनुष्य और देवलोक में ( परमसुखं भुक्त्वा ) उत्तम सुखों को भोगकर ( अन्ते ) अन्त में ( अक्षयं-अनन्तं-शिवपदं ) अविनाशी, शाश्वत ऐसे मोक्ष पद को ( प्रयाति ) प्राप्त करता है।
भावार्थ-वर्धमान प्रभु के इस मंगल स्तोत्र को जो भव्यात्मा दोनों ही सन्ध्याकालों में पढ़ता है वह मनुष्य और देवलोक के उत्तम सुखों को भोगकर अन्त में अविनाशी, अक्षय अनन्त मोक्ष पद के अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करता है।
बसस-तिलका यत्रार्हतां गणभृतां श्रुतपारगाणां,
निर्वाणभूमिरिह भारतवर्षजानाम् । तामद्य शुद्धमनसा क्रियया वचोभिः,
संस्तोतुमुद्यतमतिः परिणौमि भक्त्या ।।२१।। अन्वयार्थ-( इह ) यहाँ जम्बूद्वीप में ( यत्र ) जहाँ ( भारतवर्षजानाम् ) भारत देश में उत्पन्न ( अर्हतां, गणभृतां, श्रुतपारगाणां निर्वाणभूमिः ) अर्हन्तों, तीर्थंकरों की गणधरों और श्रुत के पारगामी-श्रुतकेवली की निर्वाणभूमि हैं ( संस्तोतुम् उद्यत-मति: ) उन भूमियों की सम्यक् प्रकार स्तुति करने के लिये तत्पर बुद्धि वाला हुआ मैं ( भक्त्या ) भक्तिपूर्वक ( ताम् ) उनको ( अद्य ) आज अभी ( शुद्ध-मनसा-क्रियया-वचोभिः ) शुद्ध मन, वचन, क्रिया-काय से ( परिणौमि) अच्छी तरह नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ- इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र आर्यखण्ड में होने वाले २४ तीर्थकरों की निर्वाणभूमियों, सामान्य केलियों की निर्वाणभूमियों, गणधरों की निर्वाणभूमियों तथा श्रुतकेवलियों की निर्वाणभूमियों एवं अन्य सर्व मुनियों की जो-जो निर्वाणभूमियां हैं, उन सब मंगलमय, भूमियों की स्तुति करने का इच्छुक मैं आज भक्तिपूर्वक निर्मल मन-वचन-काय से नमस्कार करता हूँ।