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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका कैलाश शैलशिखरे परिनिर्वृतोऽसौ,
शैलेशिभावमुपपद्य वृषो महात्मा । चम्पापुरेच वसुपूज्यसुतः सुधीमान,
सिद्धिं परामुपगतो गतरागबन्धः ।।२२।। अन्वयार्थ—( शैलेशिभावम् उपपद्य ) अठारह हजार शीलों के स्वामीपने को प्राप्त करके ( असौ महात्मा वृषः ) ये महान आत्मा वृषभदेव ( कैलासशैल-शिखरे ) कैलाश पर्वत के शिखर पर ( परिनिर्वृत: ) निर्वाण को प्राप्त हुए ( गत-रागबन्धः सुधीमान् ) राग के बन्ध से रहित अतिशयज्ञानी मालज्ञानी ( ज्यशुत: राजा सुपूज्य के पुत्र भगवान् वासुपूज्य ने चम्पापुर में ( परां सिद्धिं उपगतः ) उत्कृष्ट सिद्धि को प्राप्त किया ।
भावार्थ-अठारह हजार शीलों की पूर्णता होते ही ये "शैलेशि भाव'' से सम्पन्न इस युग के आदि तीर्थंकर श्री वृषभदेव कैलाश-पर्वत से मुक्ति-पद को प्राप्त हुए तथा वीतरागी, केवलज्ञानी भगवान वासुपूज्य ने सिद्धक्षेत्र चम्पापुर में उत्कृष्ट मोक्षस्थल को, सिद्ध अवस्था को प्राप्त किया ।
यत्प्रार्थ्यते शिवमयं विबुधेश्वराधैः,
पाखण्डिभिश्च परमार्थगवेषशीलैः । नष्टाष्ट कर्म समये तदरिष्टनेमिः,
संप्राप्तवान् क्षितिधरे वृहदूर्जयन्ते ।। २३।। अन्वयार्थ ( विबुधेश्वरायः ) इन्द्र आदि देवों के द्वारा ( च ) और ( परमार्थ-गवेषशीलै:-पाखण्डिभिः ) आत्मा की खोज करने वाले/मुक्ति की खोज करने वाले अन्य लिंगधारियों के द्वारा भी ( यत् शिवम् प्रार्थ्यते ) जिस मोक्ष की इच्छा/प्रार्थना की जाती है ( तत् ) उस मोक्ष को ( अयं अरिष्टनेमिः ) इन अरिष्टनेमि-नेमिनाथ भगवान ने ( नष्ट-अष्ट-कर्म समये) अष्ट कमों का क्षय करते ही, अयोगी गुणस्थान के अन्त समय में ( वृहत्उर्जयन्ते क्षितिधरे ) गिरनार/उर्जयन्त नामक विशाल पर्वतराज पर ( संप्राप्तवान् ) समीचीन रूप से प्राप्त किया।
भावार्थ-शाश्वत सुख के स्थान जिस मोक्ष को प्राप्त करने के लिये इन्द्रादिक देव भी सदा प्रार्थना/भावना करते रहते हैं । जिस मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा परमार्थ के खोजी अन्य लिंगियों द्वारा भी की जाती उस परम