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विमल ज्ञान प्रशोधिनी टीका
३८९ भावार्थ-छदस्थ अवस्था में निर्ग्रन्य मुनि लिंग के धारक वीरप्रभु १२ वर्ष तक विहार करते हुए ऋजुकूला नदी के समीप जृम्भिका ग्राम पहुँचे । यहाँ आप शालवृक्ष के नीचे शिलापट्ट पर अपराह्न काल में दो दिन का उपवास लेकर विराजमान हो गये। पश्चात्
वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे । क्षपक श्रेण्यारूढस्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ।। १२।।
अन्वयार्थ-( वैशाखसितदशम्यां ) वैशाख शुक्ल दसमी ( हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे ) जब चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्र पर स्थित था (क्षपक श्रेण्यारूढस्य उत्पन्नं केवलज्ञानम् ) क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ उन वीर भगवान् को केवलज्ञान उत्पत्र हुआ ।
भावार्थ-साधना-रत वीर भगवान् ने क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो, शुक्लध्यान के बल पर, वैशाख शुक्ल दसमी के शुभ दिन, जब चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्र पर स्थित था, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त किया।
अथ भगवान संप्रापद्-दिव्यं वैभारपर्वतं रम्यम् । चातुर्वर्ण्य सुसंघस्तत्राभूद् गौतमप्रभृति ।।१३।।
अन्वयार्थ--( अथ ) केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् ( भगवान ) ज्ञान से सम्पन्न वीर प्रभु ( दिव्यं रम्यं वैभारपर्वतम् सम्प्रापत् ) विशाल, सुन्दर, मनोज्ञ ऐसे वैभार-विपुलाचल पर्वत पर पधारे ( तत्र ) वहाँ ( गौतमप्रभृतिः ) गौतम स्वामी को आदि लेकर ( चातुर्वर्ण्य संघ: अभूत् ) चातुर्वर्ण्य मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका अथवा ऋषि, यति, मुनि व अनगार रूप चार प्रकार का संघ एकत्रित हुआ।
भावार्थ—पूर्ण ज्ञान-कैवल्य विभूति को प्राप्त वीरप्रभु विहार करते हुए विशाल चट्टानों से रम्य, सुन्दर, मनोहर ऐसे वैभार-विपुलाचल पर्वत पर जा पहुँचे । वहाँ गौतम गणधर सहित ऋषि-यति-मुनि-अनगार अथवा मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविका के रूप चार प्रकार के विशाल संघ के साथ समवशरण सभा में आप शोभा को प्राप्त हो रहे थे।