Book Title: Vimal Bhakti
Author(s): Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 384
________________ ३८० विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ ( या ) जो ( सुरसम्पदा आकृष्टिं ) देवों की विभूति का आकर्षण ( मुक्तिश्रिय: वश्यतां ) मुक्ति लक्ष्मी का वशीकरण ( चतुर्गति भुवा विपदाम् उच्चाट ) चारों गतियों में होने वाली विपत्तियों का उच्चाटननाश ( आत्मा-ऐनसां-विद्वेषं ) आत्मा संबंधी पापों का विद्वेष-अभाव ( दुर्गमनेप्रति प्रयतत: स्तम्भ ) दुर्गतियों में जाने वालों का स्तंभन-रोकथाम और ( मोहस्य संमोहनं ) मोह का संमोहन ( विदधते ) करती है। सा पञ्चनमस्क्रियाअक्षरमयी ) वह पञ्चपरमेष्ठी नमस्कार मन्त्र के अक्षर रूप ( आराधना देवता ) आराधना देवी ( पायात् ) मेरी रक्षा करे। ___भावार्थ—पञ्चपरमेष्ठी वाचक अक्षरों से बना हुआ णमोकार मन्त्र महा-आराध्य मंत्र है । इस महामन्त्र की अपूर्व महिमा है। यह एक ही मंत्र आकर्षण, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण, स्तम्भन व सम्मोहन मंत्र है। इस महामंत्र की आराधना से देवों को विभूति का आकर्षण होता है अत: यह आकर्षण मंत्र है | आराधक के लिये मोक्ष लक्ष्मी वश हो जाती है अत: यह वशीकरण मन्त्र है। इसकी आराधना से आराधक के चतुगात सबंधी विपत्तियों का नाश होता है अत: यह उच्चाटन मन्त्र है। इस मन्त्र का आराधक आत्मा के द्वारा होवे राग-द्वेष-मोह आदि पापों को करने से भयभीत हो, उनमें अरति भाव को प्राप्त होता है अत: यह विद्वेषण मन्त्र है। इस मंत्र की आराधना करने वाला नरक-तिर्यश्च दुर्गतियों को जाने का द्वार बन्द हो जाता है, अत: यह स्तम्भन मन्त्र है। इस मंत्र के आराधक पुरुष का मोह स्वयं मूछित हो जाता है अत: संमोहन मन्त्र है । ऐसा महामन्त्र हमारी रक्षा करे। अनन्तानन्त संसार, संततिच्छेद कारणम् । जिनराजपदाम्भोज, स्मरणं शरणं मम ।।१४।। अन्वयार्थ ( अनन्तानन्त संसार-सन्ततिच्छेदकारणम् ) अनन्तानन्त संसार की परम्परा को छेदने का कारण ( जिनराज-पदाम्भोज-स्मरणं ) जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों का स्मरण ही ( मम ) मेरा ( शरणं ) शरण भावार्थ-वीतराग जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों का स्मरण, स्तवन, वन्दन, प्रणमन ही पञ्चपरावर्तन रूप अनन्त संसार की अनादि-कालीन

Loading...

Page Navigation
1 ... 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444