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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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अन्वयार्थ – ( सर्वप्रजानां क्षेमं ) समस्त प्रजा का कल्याण हो ( भूमिपाल: बलवान धार्मिकः १: प्रभवतु ) राजा बलवान व धार्मिक हो ( मेघ: काले-काले च सलिलं वितरतु ) बादल समय-समय पर जल की वृष्टि करें ( व्याधयः नाशम यान्तु ) बीमारियाँ क्षय को प्राप्त हों ( जीवलोके ) जगत् में ( दुर्भिक्षं चौरमारि ) दुष्काल, चोरी, मारी, हैजा आदि रोग ( जगतां क्षणम् अपि मास्मभूत् ) जगत् के जीवों को क्षण भर के लिये भी न हो और ( सर्वसौख्य प्रदायि जैनेन्द्रं धर्मचक्रं सततं प्रभवतु ) समस्त सुखों को देने वाला जिनेन्द्रदेव का धर्मचक्र निरन्तर प्रवाहशाली बना रहे - सदा प्रवर्तमान, शक्तिशाली बना रहे।
भावार्थ- हे प्रभो ! लोक में समस्त प्रजा का कल्याण हो, राजा बलवान् और धार्मिक हो, सर्व दिदिगन्त में समय-समय पर मेघ यथायोग्य जलवृष्टि करते रहें, कहीं भी, कभी भी अतिवृष्टि रूप प्रकोप न हो, मानसिक-शारीरिक बीमारियों का नाश हो, तथा लोक में जीवों को कभी भी क्षण मात्र के लिये भी दुष्काल, चोरी, मारी रोग, हैजा, मिरगी आदि न हों । वीतराग जिनेन्द्रदेव का धर्मचक्र जो प्राणीमात्र के लिये सुखप्रदायक है, सदा प्रभावशाली बना रहे। हे विभो ! आपका जिनशासन सर्वलोक में विस्तृत हो, लोकव्यापी जिनधर्म कल्याणकारी हो ।
तद् द्रव्यमव्ययमुदेतु शुभः स देशः,
संतन्यतां प्रतपतां सततं सकालः ।
भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण,
रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्षवर्गे ।। १६ ।। अन्वयार्थ -- ( यत् अनुग्रहेण ) जिनके अनुग्रह से ( इह ) यहाँ ( मुमुक्षुवर्गे ) मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनिजनों ( रत्नत्रयं ) रत्नत्रय ( अव्ययम् ) अस्खलित प्रकाशित रहे ऐसा ( तद् द्रव्यम् ) वह द्रव्य ( उदेतु ) उत्पन्न होओ ( स शुभ देश: ) वह शुभ देश / शुभ स्थान [ मुनियों को मिले ] ( सततं ) सदा उन मुनियों के रत्नत्रय ( सन्तन्यतां प्रतपतां ) समीचीन तप की वृद्धि हो ( स कालः ) वह उत्तमकाल [ मुनियों को प्राप्त हो ! तथा ( सदा नन्दतु ) सदा आत्मा के निर्मल परिणामों से प्रसन्न हो ( स भावः ) भाव मुनियों को प्राप्त हो ।