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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ३७५ भावार्थ हे जिनेन्द्रदेव ! मैं जब तक मुक्त अवस्था को प्राप्त न हो जाऊँ तब तक प्रत्येक भव में मैं जिनेन्द्रकथित सच्चे आगम का अभ्यास करता रहूँ । तब तक आपके चरणो में नतमस्तक हुआ, आपकी स्तुति करता रहूँ. हमेशा साधु मनुष्यों की, आर्य पुरुषों को संगांत करता रहूँ । आपके चरणों की आगधना का एकमात्र फल यही हो कि रत्नत्रयधारियों, सदाचारियों के दोषों के कथन में मैं मौन रहूँ । प्राणीमात्र में हितकर-प्रिय वचनों से वार्तालाप करूँ और अन्त में यही प्रार्थना है कि मैं अपने आत्मतत्त्व की भावना मुक्ति-पर्यन्त भाता रहूँ।
जैनमार्गरुचिरन्यमार्ग निर्वेगता, जिनगुणस्तुतौ मतिः । निष्कलंक विमलोक्ति भावनाः, संभवन्तु मम जन्म-जन्मनि ।।३।। ___ अन्वयार्थ ( जैन-मार्ग-रुचिः ) जिनेन्द्रकथित मुक्तिमार्ग में श्रद्धा, ( अन्य-मार्ग-निर्वेगता ) अन्य एकान्त मिथ्यामार्ग में विरक्ति, अश्रद्धा, ( जिनगुण-स्तुतौ-मति: ) जिनेन्द्रदेव गुणों की स्तुति करने में बुद्धि ( निष्कलङ्कविमल-उक्ति-भावना; ) निदोष, निर्मल, जिनेन्द्रकथित वाणी-जिनवाणी में भावना ( मम ) मुझे ( जन्म-जन्मनि ) जन्म-जन्मों-प्रत्येक भव में ( सम्भवन्तु ) प्राप्त होती रहे।
भावार्थ हे वीतराग प्रभो ! मुक्तिपर्यन्त प्रत्येक भव में मुझ में जिनेन्द्रकथित रत्नत्रय-रूप मुक्ति मार्ग के प्रति अविचल श्रद्धा बनी रहे । एकान्त, मिथ्यामतों में या संसार-मार्ग में मेरी रुचि अत्यन्त दूर रहे । मेरी बुद्धि सदा जिनेन्द्रदेव के अनुपम अतुल गुणों के स्तवन में लगी रहे तथा निदोष, निष्कलंक, निर्मल ऐसी जिनेन्द्रवाणी---जिनवाणी मुझे जन्मजन्म में प्राप्त होती रहे । यह प्रार्थना करता हूँ।
गुरुमूले यति-निचिते- चैत्यसिद्धान्त वार्धिसद्घोधे । मम भवतु जन्म जन्मनि, सन्यसन समन्वितं मरणम् ।।४।।
अन्वयार्थ हे भगवन् ! ( जन्म-जन्मनि ) प्रत्येक जन्म में ( मम ) मेरा ( संन्यसन-समन्वितं मरणम् ) संन्याससहित मरण ( यति निचिते ) यतियों के समूह में ( गुरुमूले ) गुरु के पादमूल में और ( चैत्य-सिद्धान्तवार्धि -सद्घोषे ) जिनप्रतिमा तथा जैन सिद्धान्त रूप समुद्र के जयघोष में हो ।