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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका मुनिराज सिद्धिसुख को प्राप्त हों, तथा अर्हन्त देव का शासन तीन लोक में सम्पूर्ण पृथ्वीमंडल पर विशेष प्रभावना को प्राप्त हो ।
शान्तिः शं तनुतां समस्त जगतः, संगच्छतां धार्मिकैः । श्रेयः श्री परिवर्धतां नयधरा, धुर्यो धरित्रीपतिः ।। सद्विद्यारसमुगिरन्तु कवयो, नामाप्यघस्यास्तु मां । प्रार्थ्यं वा कियदेक एव, शिवकृद्धमों जयत्वर्हताम् ।। ३ ।।
अन्वयार्थ-( शांतिः ) शान्तिनाथ तीर्थकर ( समस्त जगत: तनुतां ) सम्पूर्ण जगत् के प्राणियों ( शं संगच्छतां ) सुखी करो ( धार्मिकैः ) धर्मात्मा जीवों को ( श्रेय: श्री परिवर्धतां ) कल्याणकारी स्वर्ग-मुक्ति लक्ष्मी प्रदान करो ( नयधरा ) नीति की जगत् में बाढ हो ( धरित्रीपतिः धुर्यो ) राजा पराक्रमी-शूर-वीर हो ( सद्विद्यारसम् उगिरन्तु कवयो ) विद्वद्जनों समीचीन/ उत्तम विद्या का [ लोक में ] प्रसार करो ( नाम अपि अघस्य आस्तु मां ) पाप का नाम भी देखने का न रहे/पाप का समूल नाश हो । ( वा ) और ( प्रार्थं कियत् ) माँगने के लिये स ( क एव ! एक ही हो। अक्षा । जिनेश्वर का ( शिवकृत् धर्मः ) मोक्षदायक धर्म ( जयतु ) जयवन्त हो। ___भावार्थ-हे शान्तिनाथ प्रभो ! तीन लोक के समस्त प्राणी सुखी हों, धर्मात्मा जीवों के कल्याणकारी स्वर्ग-मुक्त लक्ष्मी प्राप्त हो, नीति न्याय का घर-घर में प्रचार हो, पृथ्वी का राजा शूर-वीर हो । विद्वान् लोग उत्तम शिक्षा का प्रसार करें जिससे कोष में पाप का नाम भी न रहे/ पृथ्वी पर पाप का नाम भी न रहे और अन्त में क्या माँगू, बस एक ही माँगता हूँ, वह यह कि “वीतराग जिनदेव/अर्हन्त भगवन्त का मोक्षदायक "जिनधर्म" सदा पृथ्वी-मंडल पर जयवन्त रहे ।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! संतिभत्ति-काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं, पञ्चमहा-कल्लाण-संपण्णाणं, अट्ठमहापाडिरेह-सहियाणं, चउतीसातिसयविसेस-संजुत्ताणं, बत्तीस-देवेंद-मणिमय मउड मस्थय महियाणं बलदेव वासुदेव चक्कहर रिसि- मुणि-जदि-अणगारोव गूढ़ाणं, थुइ-सय-सहस्सणिलयाणं, उसहाइ-बीर-पच्छिम-मंगल-महापुरिसाणं णिच्चकालं, अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाओ,