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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ--( संतप्त उत्तम-काञ्चन-क्षितिधर श्री-स्पर्द्धि-गौरद्युते ! ) तपाये हुए उत्तम स्वर्ण के पर्वत की शोभा के साथ ईर्ष्या करने वाली पीत कान्ति से युक्त हे शान्ति जिनेन्द्र ! ( त्वत् चरण प्रणाम करणात् ) आपके चरणों में प्रणाम करने से ( पुंसां ) जीवों की ( पीड़ा: ) पीड़ा उसी तरह ( क्षयं प्रयान्ति ) क्षय को प्राप्त होती है ( यथा ) जिस प्रकार ( उद्यद् भास्कर-विस्फुरत् कर शत व्याघात-निष्कासिता) उदय को प्राप्त सूर्य देदीप्यमान सैकड़ों किरणों के आधात से निकली हुई ( नाना-देहि-विलोचनद्युतिहरा ! अनेक प्राणियों के नेत्रों की कान्ति को हरने वाली ( शर्वरी ) रात्रि ( शीघ्नं क्षयं प्रयाति ) शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो जाती है।
भावार्थ-तपाये हुए उत्तम स्वर्ण की कान्ति के सम दीप्तिमान तेज के धारक जिनके शरीर की पीत कान्ति सुमेरु पर्वत की कान्ति को भी फीका कर रही है ऐसे हे शान्तिनाथ जिनेन्द्र ! जिस प्रकार उगते हुए सूर्य की तेजोमयी किरणों के आघात से भयानक रात्रि शीघ्र नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार आपके श्रीचरणों में प्रणाम, वन्दन, नमन, स्तवन करने वाले मनुष्यों की समस्त पीड़ाएँ क्षणमात्र में क्षय को प्राप्त हो जाती हैं ।
मुक्ति का कारण जिन-स्तुति त्रैलोक्येश्वर भंग लब्ध विजयादत्यन्त रौद्रात्मकान्, नाना जन्म शतान्तरेषु पुरतो जीवस्य संसारिणः । को वा प्रस्खलतीह केन विधिना कालोन दावानलान्, न स्याच्चेत्तव पाद पन युगल स्तुत्थापगा वारणम् ।। ४ ।।
अन्वयार्थ—( त्रैलोक्य-ईश्वर-भङ्ग-लब्ध-विजयात् ) अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक के अधिपतियों के नाश से प्राप्त हुई विजय से जो { अत्यन्त-रौद्रात्मकात् ) अत्यधिक क्रूरता को प्राप्त हुआ है, ऐसे ( कालउग्र-दावानलात् ) मृत्युरूपी प्रचण्ड दावाग्नि से ( नाना-जन्म-शत-अन्तरेषु ) अनेक प्रकार के सैकड़ों जन्मों के बीच ( इह ) इस जगत् में ( कः ) कौन ( केन विधिना ) किस विधि से ( प्रस्खलति ) बच सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । ( चेत् ) यदि ( संसारिण: जीवस्य) संसारी जीवों के ( पुरतः) आगे ( तव ) आपके ( पादपद्म-युगल-स्तुति-आपगा ) दोनों चरणकमल की स्तुतिरूपी नदी ( वारणं ) निवारण करने वाली ( न स्यात् ) नहीं होती।