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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
स्तुति से अनन्त सुख दिव्य स्त्री नयनाभिराम विपुल श्री मेरु चूडामणे, भास्वद् बाल दिवाकर धुतिहर प्राणीष्ट भामण्डल । अठ्याबाध मचिन्त्यसार मतुलं त्यक्तोपमं शाश्वतम्, सौख्यं त्वच्चरणारविन्द युगल स्तुत्यैव सम्प्राप्यते ।। ६ ।। ___ अन्वयार्थ ( दिव्यस्त्री-नयन-अभिराम ) हे देवाङ्गनाओं के नयनों के प्रिय लगनेवाले उनके नयनवल्लभ ! ( विपुलश्रीमेरुचूडामणे ! ) हे विशाल अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी के श्रेष्ठ चूड़ामणि ! ( भास्वत्-बाल दिवाकरद्युतिहर-प्राणी-इष्ट-भामण्डल ) हे शोभायमान बाल सूर्य को कान्ति के हरने वाले, भव्य प्राणियों के इष्ट भामण्डल से सहित भगवन् ! ( अव्याबाधम्अचिन्त्य-सारम-अतुलम् ) बाधाओं से रहित, अचिन्तनीय, सारभूत, अतुल्य/ तुलना रहित ( त्यक्त-उपमम् ) उपमातीत ( शाश्वतं ) अक्षय, अनन्त, अविनाशी ( सौख्यं ) सुख ( त्वत् चरण-अरविन्द-युगल:) आपके श्रीचरण कमल युगल की ( स्तुति-एव सम्प्राप्यते ) स्तुति से ही प्राप्त होता है।
भावार्थ हे शान्ति जिनेन्द्र ! आपका नयनाभिराम, सौम्य, जगत्, प्रिय रूप देवाङ्नाओं को भी प्रिय लगने वाला है अतः हे देवाङ्गनाओं के नयनवल्लम ! हे अन्तरङ्ग अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी के स्वामी तथा बहिरंग समवसरण प्रातिहार्य आदि श्रेष्ठ लक्ष्मी के चूडामणि !, उगते हुए, प्रात:कालीन, बाल सूर्य के समान कान्तियुक्त ऐसे भामण्डल से युक्त हे भगवन् ! आपकी स्तुति की महिमा अपरम्पार है । निर्बाध, अचिन्तनीय, सारभूत, तुलनारहित, उपमाओं से रहित अक्षय, अविनश्वर, अतीन्द्रिय सुख आपके पावन परम वन्दनीय श्रीचरण-कमलों की स्तुति से ही प्राप्त हो सकता है। अर्थात् आत्मा का सच्चा सुख वीतराग जिनेन्द्रदेव की आराधना से ही प्राप्त होता है।
भगवान् के चरण-कमल प्रसाद से पापों का नाश यावन्नोदयते प्रभा परिकरः श्रीभास्करो भासयंस्, तावद् धारयतीह पंकज वनं निद्रातिभार श्रमम् । यावत्त्वच्चरणदयस्य भगवन् ! नस्यात् प्रसादोदयस्तावज्जीव निकाय एष वहति प्रायेण पापं महत् ।। ७ ।।