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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भावार्थ हे भगवन् ! अधोलोक के स्वामी धरणेन्द्र, मध्यलोक के स्वामी चक्रवर्ती व ऊर्ध्वलोक के स्वामी इन्द्र इनके विनाश से प्राप्त विजय से जो अत्यन्त भयानक रूप को प्राप्त कर चुका है, ऐसे मृत्युरूपी विकराल काल से कौन कैसे बच सकता है ? यदि आपके पावन चरण-कमल युगल की स्तुतिरूपी नदी संसारी जीवों के आगे उसकी रक्षक न हो । अर्थात् भयानक दावानल की गति नदी सामने आने पर रुक जाती है या दावानल नदी का सम्पर्क पा बुझ जाता है उसी प्रकार मृत्युरूपी दावानल भी आपकी स्तुति करने से मन्दगति वाला हो, शान्त हो जाता है । भावार्थ यह है कि जो भव्य जीव आपकी स्तुति करते हैं, वे काल याने मृत्यु को सदा-सदा के लिये जीतकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
स्तुति से असाध्य रोगों का नाश लोकालोक निरन्तर प्रवितत् ज्ञानैक मूर्ते विमो ! नाना रत्न पिनद्ध दण्ड सचिर श्रेतातपत्रलय । त्वत्पाद द्वय पूत गीत रवतः शीघ्रं द्रवन्त्यामया, दधिमातमृगेन्द्रभीम निनदाद् बन्या यथा कुखराः ।। ५ ।।
अन्वयार्थ—( लोक अलोक-निरन्तर-प्रवितत्-ज्ञान-एक-मूर्ते ) लोक और अलोक में निरन्तर विस्तृत ज्ञान ही जिनकी एक अद्वितीय मूर्ति है । ( नानारत्न-पिनद्ध-दण्ड-रुचिर-श्वेत-आतपत्र-त्रय ) जिनके सफेद छत्रत्रय नाना प्रकार के रत्नों से जडित सुन्दर दण्ड वाले हैं, ऐसे ( विभो! ) हे अलौकिक विभूति के स्वामी शान्ति जिनेन्द्र ! ( त्वत्-पाद-द्वय-पूत-गीतरवतः ) आपके चरण युगल के पावन स्तुति के शब्दों से ( आमया ) रोग ( शीघ्रं ) शीघ्र ( द्रवन्ति ) भाग जाते हैं । ( यथा ) जिस प्रकार ( दध्मातमृगेन्द्र-भीम-निनदात् ) अहंकारी सिंह की भयानक गर्जना से ( वन्या कुञ्जराः ) जंगली हाथी ।
भावार्थ हे लोकालोक के ज्ञाता, केवलज्ञानमयी अनुपम मूर्ते ! हे रत्नों जड़ित तीन छत्रों से शोभायमान शान्ति जिनेन्द्र ! आपके पावन चरण-युगल की स्तुति के पावन निर्मल शब्दों की आवाज मात्र से भव्यजीवों के असाध्य रोग भी तत्काल उसी प्रकार भाग जाते हैं; जिस प्रकार भयानक जंगल में मदमस्त सिंह की भयंकर गर्जना सुनकर वन के जंगली हाथी तितर-बितर हो जाते हैं।