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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३५९ शान्ति भक्ति "शान्त्यष्टकम्"
शार्दूलविक्रीद्वितम् न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन् ! पादद्वयं ते प्रजाः, हेतुस्तत्र विचित्र दुःख निचयः संसार धोरार्णवः । अत्यन्त स्फुरदुम रश्मि निकर व्याकीर्ण भूमण्डलो, प्रैष्मः कारयतीन्दु पाद सलिल-च्छायानुरागं रविः ।। १ ।।
अन्वयार्थ ( भगवन् ! ) हे भगवन् ! (प्रजाः ) संसारी भव्य जीव ( ते पादद्वयं ) आपके दोनों चरणों की ( शरणं ) शरण को ( स्नेहात् ) स्नेह से ( न प्रयान्ति ) प्राप्त नहीं होते हैं । ( तत्र ) उसमें ( विचित्र दुःख निचय: । विचित्र प्रकार का कमों का समूह ऐसा ( संसार घोर आर्णवः हेतुः ) संसाररूपी धोर/भयानक समुद्र ही एकमात्र कारण है । उचित ही है ( अत्यन्त स्फुरत्-उग्ररश्मि-निकर-व्याकीर्ण-मूमण्डल: ) अत्यन्त देदीप्यमान प्रचण्ड किरणों के समूह से पृथ्वी मण्डल को व्याप्त करने वाला ( गृष्मः रवि: ) ग्रीष्म ऋतु का सूर्य ( इन्दु-पाद-सलिल-च्छाया-अनुरागं ) चन्द्रमा की किरण, जल व छाया से अनुराग को ( कारयति ) करा देता है।
भावार्थ-हे वीतराग प्रभो ! संसारी भव्यजीव आपके चरण-कमलों की शरण में मात्र स्नेह से नहीं आते हैं किन्तु जिस प्रकार ज्येष्ठ मास में सूर्य की तप्तायमान प्रचण्ड किरणों से जहाँ भूमण्डल तपित हुआ है वहाँ उस स्थिति में मानव चन्द्रमा की शीतल चाँदनी/किरणों, शीतल जल व वृक्षों की सघन छाया से स्वयं ही स्वाभाविक रूप से अनुराग करने लगता है; ठीक उसी प्रकार संसाररूपी भयानक समुद्र में निधत्ति, निकाचित आदि विविध कर्मों से पीड़ित, संतप्त ऐसे भव्य जीव शान्ति की प्राप्ति के लिये स्वयं ही आपके पुनीत शान्तिप्रदायक दोनों चरण-कमलों की शरण को प्राप्त होते हैं । अर्थात् जैसे संसारी जीवों का गर्मी का संताप शीतल चन्द्र किरण, जल आदि के द्वारा शान्त होता है वैसे ही भव्यजीवों का कर्मों का भयानक दुख आपके चरण-शरण में आने से दूर होता है ।