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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
कओ ) पञ्चमहागुरु भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया ( तस्सालोचेउं ) उनकी आलोचना करने की ( इच्छामि ) मैं इच्छा करता हूँ । ( अट्ठ- पाडिहेर संजुत्ताणं अरहंताणं ) आठ प्रातिहार्यों से युक्त अरहन्तों को ( अट्ठ- गुण संपण्णा ) आठ गुणों से सम्पन्न ( उगलोय - मत्ययम्मि पट्ठियाणं सिद्धाणं ) उर्ध्वलोक के मस्तक पर स्थित सिद्धों को ( अड. पवय- संजुत्ताणं ) अष्ट प्रवचन मातृकाओं से युक्त ( आयरियाणं ) आचार्यों को (आयारादिसुदाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं ) आचाराङ्ग आदि श्रुतज्ञान के उपदेशक उपाध्यायों को ( तिरयणगुणपालणरदाणं सव्वसाहूणं ) रत्नत्रय गुणों के पालन करने में सदा रत रहने वाले सब साधुओं को ( णिच्चकालं ) नित्यकाल (अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि ) अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, मेरे ( दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं, समाहिमरणं) दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, मुझे रत्नत्रय की प्राप्ति हो, मेरा सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो ( जिनगुणसंपत्ति होऊ मज्झं ) मुझे जिनेन्द्रदेव के अनुपम अनन्त गुणों की प्राप्ति हो ।
भावार्थ- " मैं गुणों से मंडित पञ्चपरमेष्ठी भगवन्तों की पूजा, अर्चा, वन्दना करता हूँ।” मेरे दुखों का, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति, उत्तम गति की प्राप्ति हो, समाधि की प्राप्ति हो तथा जिनेन्द्र देव के गुणों की प्राप्ति हो ।
।। इति पञ्च गुरु भक्तिः ।।