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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
सुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं ) आचाराङ्ग द्वादशांग श्रुतज्ञान का उपदेश देने वाले उपाध्याय परमेष्ठी की (तिरयणगुणपालणरयाणं ) रत्नत्रयरूपी गुणों के पालन करने में सदा तत्पर ऐसे ( सव्वसाहूणं ) सभी साधु परमेष्ठी की मैं ( णिच्चकाल) सदाकाल (अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि ) अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। मेरे ( दुक्खक्खओ-कम्मक्खओ ) दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो ( बोहिलाहो ) रत्नत्रय की प्राप्ति हो ( सुगइगमणं ) उत्तम गति में गमन हो ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो, तथा ( जिणगुणसंपत्ति होऊ मज्झं ) मेरे लिये जिनेन्द्रदेव के गुणों की प्राप्ति हो ।
भावार्थ- मैं आचार्यभक्ति सम्बंधी कायोत्सर्ग के बाद उसकी आलोचना करता हूँ । रत्नत्रयधारक, पञ्चाचारपालक आचार्य परमेष्ठी, द्वादशांग श्रुत के उपदेशक उपाध्याय परमेष्ठी तथा रत्नत्रयरूप गुणों से मण्डित साधु परमेष्ठी की मैं सदा काल अर्चा, पूजा, वन्दना, आराधना करता हूँ, इनके फलस्वरूप मेरे दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, उत्तमगति की प्राप्ति हो, समाधिपूर्वक मरण हो तथा जिनेन्द्रदेव के गुणों की प्राप्ति हो ।
।। इत्याचार्यभक्तिः ।।