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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका पञ्चमहागुरुभक्तिः आर्याछन्दः
श्रीमदमरेन्द्र मुकुट- प्रघटित मणि-किरण वारि-धाराभि: 1 प्रक्षालित-पद- युगलान् प्रणमामि जिनेश्वरान् भक्त्या ।। १ ।।
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अन्वयार्थ – ( श्रीमत् - अमरेन्द्र मुकुट प्रघटित मणि-किरण-वारिधाराभिः ) श्रीमान्-अन्तरङ्ग - बहिरङ्ग लक्ष्मी से शोभायमान, इन्द्रों के मुकुटों में जड़े हुए मणियों की किरणरूप जल धाराओं से ( प्रक्षालित-पद-युगलान् ) प्रक्षालित हुए हैं चरण-युगल जिनके ऐसे ( जिनेश्वरान् ) अरहन्त देव को ( भक्त्या ) भक्ति से ( प्रणमामि ) मैं नमस्कार करता हूँ ।
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भावार्थ — अन्तरङ्ग मे अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी व बाह्य समवसरण विभूति से शोभा को प्राप्त भवनवासियों के ४०, व्यन्तर देवों के ३२, कल्पवासियों के २४, ज्योतिषियों के २, मनुष्यों का चक्रवर्ती व तिर्यञ्चों का सिंह इस प्रकार १०० इन्द्रों से वन्दित हैं चरण कमल जिनके ऐसे वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी अरहन्त परमात्मा को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ।
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अष्टगुणैः समुपेतान् प्रणष्ट-दुष्टाष्ट कर्मरिपु समितीन् । सिद्धान् सतत मनन्तान्- नमस्करो मीष्ट तुष्टि संसिद्ध्यै ।। २ ।।
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अन्वयार्थ - जिनके ( प्रणष्ट-दुष्ट- अष्ट- कर्मरिपु- समितीन् ) दुष्ट आठ कर्मरूपी शत्रुओं का समूह पूर्ण क्षय को प्राप्त हो गया है जो ( अष्टगुणैः समुपेतान् ) आठ गुणों से युक्त हैं ऐसे ( अनन्तान् सिद्धान् ) अनन्त सिद्धों को ( सततम् ) सदा / निरन्तर ( ईष्ट तुष्टि-संसिद्ध्यै ) इच्छित, सन्तोष की समीचीन सिद्धि के लिये ( नमस्करोमि ) मैं नमस्कार करता हूँ ।
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भावार्थ--- जिन्होंने ज्ञानावरण आदि आठ दुष्ट कर्मों के समूह का पूर्ण क्षय कर दिया जो आठ कर्मों के अभाव में सम्यक्त्व आदि आठ महागुणों से शोभायमान हैं ऐसे अनन्त सिद्धों को मैं इच्छित, तुष्टिकारक, समीचीन सिद्धि की प्राप्ति के लिये सदा नमस्कार करता हूँ ।
साचार श्रुत- जलधीन्- प्रतीर्य शुद्धोरुचरण- निरतानाम् ।
आचार्याणां पदयुग कमलानि दधे शिरसि मेऽहम् ।। ३ ।।