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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
अन्वयार्थ – ( साचार - श्रुत- जलधीन् ) आचारवान होकर श्रुतरूपी समुद्र को ( प्रतीर्य ) उत्कृष्टपने तैरकर जो ( शुद्ध उरु-चरण-निरतानां ) हुए हैं । शुद्ध, निर्दोष, आचरण / चारित्र के पालन करने सदा निरत / लगे ऐसे ( आचार्याणाम् ) आचार्यों के ( पद-कमल-युगलानि ) चरण कमलों को (अहं) मैं ( मे शिरसी) अपने शिर पर ( दधे ) धारण करता हूँ । अर्थात् उनके चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।
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भावार्थ — जो आचाराङ्ग सहित पूर्ण द्वादशांग श्रुतरूपी समुद्र में पारंगत हो, निर्दोष, शुद्ध पंचाचार के पालन करने में सदा तत्पर रहते हैं, ऐसे आचार्य भगवन्तों के पुनीत चरण-युगल को मैं अपने सिर पर धारण करता हूँ। उन्हें भक्ति से सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।
मिथ्यावादि-मद्रो ध्वान्त- प्रध्वन्सि- वचन ~ संदर्भान् । दुरितारि प्रणाशाय ।। ४ ।।
मम
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उपदेशकान् प्रपद्ये
अन्वयार्थ - ( मिथ्यावादी-मद- उग्र-ध्वान्त-प्रध्वंसि वचन - सन्दर्भान् ) जिनके वचनों के सन्दर्भ, प्रकरण मिथ्यावादियों के बढ़ते हुए अहंकार व अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले हैं, ऐसे ( उपदेशकान् ) उपाध्याय परमेष्ठियों को "मैं" ( मम दुरित- अरिप्रणाशाय ) अपने पापरूपी शत्रुओं का नाश करने के लिये ( प्रपद्ये ) प्राप्त होता हूँ। अर्थात् मैं अपने पापों की शान्ति के लिये उनकी शरण में जाता हूँ ।
नित्य भावार्थ — उपाध्याय परमेष्ठी स्वसमय पर समय के ज्ञाता, धर्मोपदेश में निरत रहते हैं उनके हित- मित- प्रिय प्रवचनों के प्रकरण को सुनते ही मिथ्यावादियों का मान गलित हो जाता है, अज्ञान, अंधकार विलीन हो जाता है। ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी की शरण में मैं भी जाता हूँ । आपके चरण कमलों के सम्पर्क से, शरणार्थी के पापों का क्षय हो ।
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सम्यग्दर्शन- दीप प्रकाशका मेय-बोध-सम्भूताः । भूरि चरित्र - पताकास्ते सांधु-गणास्तु मां पान्तु ।। ५ ।। अन्वयार्थ --- जो ( सम्यग्दर्शन-दीप- प्रकाशका ) सम्यग्दर्शनरूपी दीपक को प्रकाशित करने वाले हैं, (मेय बोध-संभूताः ) जो जीवादि ज्ञेय पदार्थों के समीचीन ज्ञान से सम्पत्र हैं ( भूरि-चरित्र - पताका: ) उत्कृष्ट चारित्ररूपी