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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भावार्थ-कामदेव के विजेता, शुद्ध, विकाररहित, समस्त परिग्रह के त्यागी, द्रव्य-भाव संयम या इन्द्रिय-प्राणी संयम में मन को लगाने वाले, समीचीन नयों के वर्णन में निपुण, पूर्ण तत्त्वज्ञ, जन्म-मृत्यु से भयभीत सच्चे निग्रंथ गुरुओं को मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।
सम्यग्दर्शन मूलं, ज्ञानस्कंधं चरित्रशाखाड्यम् ।। मुनिगणविहगाकीर्ण-माचार्य महाद्रुमम् वन्दे ।।१०।।
अन्वयार्थ-( सम्यग्दर्शनमूलं ) सम्यग्दर्शन जिसकी जड़ है ( ज्ञानं स्कंधं ) ज्ञान जिसका स्कन्ध है ( चारित्रशाखाड्यम् ) चारित्ररूपी शाखा से जो युक्त है ( मुनिगण-विहगाकीर्णं ) मुनिसमूहरूपी पक्षियों से जो युक्त हैं उन ( आचार्यमहाद्रुमम् ) आचार्यरूप महावृक्ष को ( वन्दे ) मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-आचार्य परमेष्ठी को एक विशाल वृक्ष को उपमा दी गई हैं। वह आचार्यरूपी वृक्ष कैसा है- सम्यग्दर्शन उसकी जड़, ज्ञान उसका स्कन्ध है, चारित्र-विविध प्रकार के सामायिक आदि चारित्र इसकी शाखाएँ हैं, मुनिरूपी पक्षीगण इसमें सदा धर्म्यध्यान में लीन रहकर चहकते रहते हैं ऐसे इस आचार्य रूपी महावृक्ष को मैं नमस्कार करता हूँ।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! आइरियभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचे सम्मणाण, सम्पदसण सम्मचरित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आइरियाणं, आयारादि सुदणाणोवदेसयाणं, उवज्झायाणं, तिरयणगुणपालणरयाणं, सब्यसाहूणं, णिच्चकालं अच्चमि, पुज्जमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण-सम्पत्ति होउ-मज्झं । ___ अर्थ--( मंते ! ) हे भगवन् ! मैंने ( आयरिय-भत्ति-काउस्सागो कओ ) आचार्य भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया ( तस्स आलोचेउं ) उसकी आलोचना करने की { इच्छामि ) इच्छा करता हूँ। ( सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्त जुत्ताणं ) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र से युक्त ( पंचविहाचाराणं आयरियाणं ) पञ्चाचार के पालक आचार्य परमेष्ठी की ( आयारादि