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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३४७ है, सम्यक्चारित्र और तप निधियाँ हैं तथा जिनके पास अतिमात्र में गुण हैं, ऐसे आचार्यों, गुरुओं को मेरा नमस्कार हो।
छत्तीसगुणसमग्गे, पंचविहापास्करण संसरिसे । सिस्साणुग्गहकुसले, धम्माइरिये सदा वंदे ।। २ ।।
अन्वयार्थ-जो ( छत्तीसगुणसमग्गे ) छत्तीस मूलगुणों से पूर्ण है ( पंचविहारचारकरण संदरिसे ) पंचप्रकार के आचार का स्वयं आचरण करते हैं तथा शिष्यों से कराते हैं ( सिस्सागुग्गहकुसले ) शिष्यों पर अनुग्रह करने में जो निपुण हैं ऐसे ( धम्माइरिये ) धर्माचार्य की ( सदा वंदे ) मैं सदा वन्दना करता हूँ।
भावार्थ-जो आचार्य परमेष्ठी १२ तप १० धर्म ६ आवश्यक ३ गुप्ति और ५ आचार रूप ३६ मूलगुणों से पूर्ण हैं, पंचाचार-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का स्वयं आचरण करते हैं शिष्यों से भी आचरण करवाते हैं, शिष्यों पर अनुग्रह करने में निपुण हैं; ऐसे धर्माचार्य की मैं सदा वन्दना करता हूँ ।
गुरुभत्ति संजमेण य, तरंति संसारसायरं घोरं । छिण्णंति अट्ठकम्मं, जम्मणमरणं ण पाति ।। ३ ।।
अन्वयार्थ ( गुरुभत्ति संजमेण य ) गुरुभक्ति और संयम से [ जीव ] ( धोरं संसारसायरं ) घोर/भीषण संसार-सागर को ( तरंति ) पार करते हैं ( अट्ठकम्मं छिण्णंति ) अष्टकर्मों का क्षय करते हैं ( जम्मणमरणं ण पावेंति ) जन्म-मरण को नहीं पाते हैं।
भावार्थ हे भव्यात्माओं ! गुरुभक्ति व संयम की आराधना से जीव संसाररूपी भीषण समुद्र को पार करते हैं, व अष्टकर्मों का क्षय कर जन्ममरण के दुःखों से छूट जाते हैं।
ये नित्यं व्रतमंत्रहोमनिरता, ध्यानाग्नि होत्राकुलाः । षट्कर्माभिरतास्तपोधन धनाः, साथुक्रियाः साधवः ।। शीलप्रावरणा गुणप्रहरणाश्चंद्रार्क तेजोऽधिकाः । मोक्षद्वार कपाट पाटनपटाः प्रीणंतु मां साधवः ।। ४ ।। अन्वयार्थ-( ये ) जो आचार्य परमेष्ठी ( नित्यं ) नियम से ( रतमंत्र