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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ___अन्वयार्थ-जो ( अतुलान् ) उपमारहित ( उत्कुटिकासान् ) उत्कुट आदि आसनों से तपश्चरण करते हैं ( विविक्त-चित्तान् ) जिनका हृदय सदा पवित्र है, हेयोपादेय बुद्धि से जागृत है ( अखण्डित-स्वाध्यायान् ) जो नियमित स्वाध्याय करने से अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी हैं ( दक्षिणभाव-समग्रान् ) जो सरल-छल-कपट रहित परिणामों से सहित हैं ( व्यपगत-मद-रागलोभ-शठ-मात्सर्यान ) जो मान, राग, लोभ, अज्ञान और मात्सर्य/ईर्ष्याभाव से रहित हैं, उन आचार्यों को मेरा नमस्कार हो।
भावार्थ-अनुपम गुणों के धनी, पद्मासन, खड़गासन, गोदूहन, मृतकासन आदि नाना प्रकार के आसनों को लगाते हुए जो तप की आराधना में लगे रहते हैं, जिनका हृदय सदा हेय-उपादेय के विवेक से शोभायमान होने से अति पवित्र हैं जो अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग की ज्ञानधारा में सतत गोते लगाते रहते हैं, जिनके परिवार छल-कपट-मायाचार आदि से रहित सरल हैं, जो सदा मान, राग, लोभ, अज्ञान व ईर्ष्या आदि कलुषित परिणामों से रहित होते हैं अथवा इन्हें जिन्होंने नष्ट कर दिया है उन आचार्य परमेष्ठी भगवन्तों को मेरा सम्यक् प्रकारेण नमस्कार है। भिन्नार्तरौद्रपक्षासंभावित, धर्मशुक्लनिर्मल हृदयान् । नित्यंपिनद्धकुगतीन्, पुण्यागण्योदयान्धिलीनगार यचर्यान् ।। ८ ।। _अन्वयार्थ--( भित्र-आर्त्त-रौद्र-पक्षान् ) जिन्होंने आर्त और रौद्रध्यान के पक्ष को नष्ट कर दिया है, ( सम्भावित-धर्म्य-शुक्ल-निर्मल-हृदयान्) जिनका हृदय यथायोग्य धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान से निर्मल है, (नित्यपिनद्ध-कुगतीन् ) जिन्होंने नरक आदि कुगतियों के द्वार को सदा के लिये बन्द कर दिया है ( पुण्यान् ) जो पुण्य रूप हैं, ( गण्य-उदयान् ) जिनका तप व ऋद्धि आदि का अभ्युदय गणनीय, प्रशंसनीय व स्तुत्य है ( विलीनगारव-चर्यान् ) जिनके रस-ऋद्धि और सुख इन तीन गारवों/अहंकारों का विलय हो चुका है, उन आचार्यों को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-जो सदा आर्त्त-रौद्र दोनों प्रकार के अशुभ ध्यान का त्याग कर धर्म व शुक्ल ऐसे शुभ व शुद्ध ध्यानों में लीन रहते हैं । जिनके लिये नरक-तिर्यश्च गति रूप अशुभ गतियों के द्वार बन्द हो चुके हैं, जिनका आत्मा पवित्र है, तप व ऋद्धियों के अभ्युदय को प्राप्त जो सदाकाल