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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ-( मोहच्छित् उग्रतपस: ) जिनका उग्र तप मोह का अथवा अज्ञान का नाश करने वाला है ( प्रशस्त-परिशुद्ध-हृदय-शोभन-व्यवहारान् । प्रशस्त, शुभ और शुद्ध हदय से जिनका व्यवहार उत्तम है, पर-उपकारक है, ( प्रासुक निलयान् ) जिनका निवास सम्मूर्च्छन जीवों से रहित प्रासुक रहता है ( अनधान् ) जो पापों से रहित हैं ( आशा विध्वंसि चेतसः ) जिनका चित्त आशा-तृष्णा, आकांक्षा को नष्ट करने वाला है और ( हतकुपथान् ) जिन्होंने कुमार्ग को नष्ट कर दिया है, उन आचार्य परमेष्ठी की मैं अभिवन्दना करता हूँ।
भावार्थ—जिन्होंने बाह्य-अभ्यन्तर उग्र तपों के द्वारा मोह व अज्ञान का नाश कर दिया है । जिनका हृदय सदा शुभोपयोग व शुद्धोपयोग से गाई रहता है, जिनका साया मोर व समपर उपकारक व्यवहार सदा रहता है, जो सदा जीवरहित भूमि में निवास करते हैं, जो पाँच पापों से रहित हैं, जिन्होंने आशा, तृष्णा आदि को तिलाञ्जलि दे दी है और जो कुमार्ग का खंडन करने वाले हैं या जिनका कुमार्ग/मिथ्यामार्ग नष्ट हो चुका है उन आचार्य भगवन्त की मैं स्तुति करता हूँ। धारितविलसन्मुण्डान्वर्जितबहु दण्डपिण्डमण्डल निकरान् । सकलपरीषहजयिनः, क्रियाभिरनिशंप्रमादतः परिरहितान् ।। ५ ।। ____ अन्वयार्थ (धारित-विलसत्-मुण्डान् ) जिन्होंने शोभायमान दस मुण्डों मन-वचन-काय-पञ्चेन्द्रियाँ-हस्त-पाद को धारण किया है ( वर्जितबहु-दण्ड-पिण्ड-मण्डल-निकरान् ) अधिक प्रायश्चित्त लेने वाले या अधिक अपराधी व अधिक प्रायश्चित्त लेने वाले आहार का ग्रहण करने वाले मुनियों के समूह से जो सदा रहित रहते हैं ( सकल-परीषह-जयिन: ) जो समस्त बाईस परीषहों को जीतने वाले हैं और ( अनिशं ) निरन्तर ( प्रमादत: क्रियाभिः ) प्रमाद से होने वाली क्रियाओं से ( परिरहितान् ) रहित हैं, उन आचार्य भगवन्तों को मेरा नमस्कार है।
भावार्थ-जिनके दस मुण्ड-मन-वचन-काय-पञ्चेन्द्रियाँ, हाथ व पैर पाप से रहित होने से सदा शोभा को प्राप्त होते हैं, अर्थात् जिनका सर्वांग पाप क्रियारहित होने से शोभायमान है, जो उन मुनियों के सम्पर्क से रहित हैं-जिनका समुदाय अपराधों की बहुलता के कारण बहुदण्ड,