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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका जोणि-पमुह-सद-सहस्सेसु एदेखि, उहावणं, परिदावणं, विराहणं, उबधादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कई ।
वद-समि-दिदिय-रोयोलोचावासय-मचेल-मण्हाणं । खिदि-सयण-मदंतवणं विदि-भोसणा- मेय- मनं च !!१।। एदे खलु मूल-गुणा समणाणं जिणवरोहिं पण्णता । एत्थ पमाद-कदादो अइचारादो णियसोहं ।। २।।
छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं। विशेष— [ इन सब का अर्थ पूर्व में आ चुका है ]
क्षुल्लकालोचना सहित क्षुल्लकाचार्य भक्तिः अर्थ सर्वातिधार-विशुद्धवर्थ क्षुल्लकालोचनाचार्य-भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम्
अर्थ----अब सब अतिचारों की विशुद्धि के लिये क्षुल्लक आलोचना आचार्य भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग मैं करता हूँ। [ ९ बार णमोकार मंत्र का जाप करें]
( यहाँ पूर्ववत् “पमो अरंताणं' इत्यादि दण्डक बोलकर कायोत्सर्ग करें, पश्चात् थोस्सामि है जिणवरे'' इत्यादि स्तव बोलकर नीचे लिखी लघु आचार्य भक्ति पढ़ें)
लघु आचार्य- भक्ति प्राज्ञः प्राप्त-समस्त-शास्त्र-हृदयः प्रव्यक्त-लोक स्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिमा-परः प्रशमवान् प्रागेवदृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्न-सहः प्रभुः पर- मनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद् धर्म-कथां गणी-गुण-निधिः प्रस्पष्ट मिष्टाक्षरः ।।१।।
( प्राज्ञः ) जो बुद्धिमान हैं ( प्राप्तसमस्तशास्त्रहदय ) जान लिया है समस्त शास्त्रों के हार्द को जिनने ( प्रत्यक्त लोकस्थिति: ) लोक की स्थिति जिनके ज्ञान में पूर्ण स्पष्ट है ( प्रास्ताश: ) जिनकी सांसारिक आशा-इच्छा समाप्त हो गई हैं तथा ( प्रतिभापर: ) जो प्रतिभासम्पन्न हैं ( प्रशमवान् ) समताभावी/श्रेष्ठ उपशम भाव से सहित हैं ( प्रागेव दृष्टोत्तरः ) प्रश्नकर्ता के प्रश्न करने से पूर्व ही उसके उत्तर को जानने वाले हैं ( प्राय: प्रश्न