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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका हो तो मैं इस प्रतिक्रमण के समय वीरभक्ति के रूप में कायोत्सर्ग करता हूँ और जब तक अरहंत भगवन्तों की पर्युपासना मै करता हूँ तब तक पाप कर्म रूप दुश्चरित्र का त्याग करता हूँ।
दसण धय सामाइय, पोसह सचित्त राइभत्तेय । बंभारंभ परिग्गह, अणुमणमुद्दिष्टदेस विरदेदे ।।१।।
एयासुजधा कहिद पडिमासु पमादाइ कयाइचार सोहणटुं छेदोवडावणं होदु माझं । अरहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय सव्वसाहुसक्खियं सम्मतपुष्वगं, सुब्बदं दिढव्यदं समारोहियं मे भवदु, मे भवदु, मे भवदु ।
अथ देवसिओ ( राइय ) पडिक्कमणाए सव्वाइचार विसोहिणिमित्तं, पुयाइरियकमेण निष्ठितकरण वीरभक्ति कायोत्सर्ग करेमि ।
अब दैनसिक ( ग़त्रिक ) प्रतिक्रमण सर्व अतिचार की विशुद्धि के निमित्त पूर्वाचार्यों के क्रम से निष्ठितकरण वीरभक्ति के कायोत्सर्ग को मैं करता हूँ।
(इति विज्ञाप्य-णमो अरहताणं इत्यादि दण्डकं पठित्या कायोत्सर्ग कुर्यात् । थोस्सामीत्यादि स्तवं पठेत् )
[ इति विज्ञाप्प ..... पठेत् । ] इस प्रकार विज्ञापन करके णमो अरहंताणं इत्यादि दंडक को पढ़कर कायोत्सर्ग करें | पश्चात् थोस्सामि इत्यादि स्तव को पढ़ें।
यः सर्वाणि चराचराणि विधिवद् द्रव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूत-भावि- भवितः सर्वान् सदा सर्वदा । जानीते युगपत् प्रतिक्षण-मतः सर्वज्ञइत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः ।।१।। वीरः सर्व-सुराऽसुरेन्द्र-महितो वीरं बुधाः संश्रिताः, वीरेणाभिहतः स्व-कर्म-निचयो वीराय भवस्या नमः । वीरात् तीर्थ-मिदं-प्रवृत्त-मतुलं वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्री-धुति- कान्ति-कीर्ति-धृतयो हे वीर ! भाद्र-स्वयि ।।२।। ये वीर-पादौ प्रणमन्ति नित्यं, ध्यान-स्थिताः संयम-योग-युक्ताः ।