________________
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२८९ पापरूप मैल को दूर करने के लिये जिसमें ( भक्त्या स्नातं ) भक्तिपूर्वक स्नान किया है तथा जो ( अमेयं ) अति विशाल है ।
भावार्थ-जो अरहंतरूपी महानद अत्यन्त विशाल है, जिसमें इस कलिकाल के पापमल को दूर करने के लिए गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि अनेक निकट भव्य श्रेष्ठ पुरुष भक्ति से स्नान किया करते हैं और अपनी आत्मा को निर्मल बनाते हैं। ऐसा यह अरहंतदेवरूपी महानद मेरे भी कर्ममल को/पापरूपी मैल को दूर करने वाला हो/मेरे भी पाप मैल को दूर करे। अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि, दुस्तर-समस्त-दुरितं दूरभ् । व्यपहरतु परम-पावन-मनन्य, जय्य-स्वभाव-भाव-गम्भीरम् ।।३०।।
अन्वयार्थ—जो ( परम-पावनम् ) अत्यन्त पवित्र है तथा ( अनन्यजय्य-स्वभाव-भाव-गम्भीरं ) अन्य परवादियों से अजेय स्वभाव वाले पदार्थों से गंभीर है ऐसे अरहन्तदेवरूपी महानद के उत्तम तीर्थ ( स्नातुं) स्नान करने के लिये ( अवतीर्णवत: ) उतरे हुए ( मम अपि ) मेरे भी ( दुस्तर-समस्त-दुरितं ) बड़े भारी समस्त पाप ( दूरं व्यपहरतु ) दूर से ही नष्ट करो।
भावार्थ-अरहन्तदेवरूपी महानद सर्व तीर्थों में श्रेष्ठ हैं, किसी भी परवादी के द्वारा वह खंडन नहीं किया जा सकता। जीवादिक ९ पदार्थों से अत्यन्त गंभीर है अर्थात ९ पदार्थों का जैसा यथार्थ स्वरूप, उनके अनन्त गुणों का चित्रण जैसा अरहंतदेव के शासन में है वैसा किसी भी अन्य मत में नहीं पाया जाता है। ऐसे महानद में मैं भी कर्ममल को धोने के लिये उतर पड़ा हूँ । हे प्रभो ! मेरे अनन्त भवों के अति दुस्तर समस्त पाप दूर कीजिये। मेरे सब पापों/कर्मों का क्षय कर दीजिये।।
यहाँ श्लोक नं. २४ से ३१ तक ८ श्लोकों में आचार्य देव ने रूपक अलंकार के चित्रण से अर्हन्तदेवरूपी महानद का सुन्दर चित्रण-चित्रित किया है। लोक में मान्यता है कि गंगा आदि महानदियों के तीर्थ-घाट पर स्नान करने वाले लोगों के पाप क्षय कर देते है, इसी विशेषता को लेकर यहाँ उपर्युक्त श्लोकों में अरहन्तदेवरूपी महानद उसके किनारे, पक्षीगण मधुर शब्द गुंजन आदि का मनोरम दृश्य उपस्थित करते हुए, उत्तम