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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
है अतः आप आहार नहीं करते हुए भी सदा तृप्त रहते हैं। जिसे भूख आदि की वेदना सताती है वही भोजन-पान करता है । परन्तु, हे अरहन्त प्रभो ! आप कवलाहार न करते हुए भी अन्य किसी में नहीं पाई जाने वाली ऐसी अनन्त तृप्ति को धारण करते हैं। हे देव ! आपका यह महास्वरूप मुझे भी पवित्र करें ।
मितस्थिति - नखांगजं
नवाम्बुरुह - चन्दन - प्रतिम- दिव्यगन्धोदयम्
रवीन्दु- कुलिशादि- दिव्य बहु लक्षणालङ्कृतम्,
दिवाकर सहस्र भासुर-मपीक्षणानां
गत रजोमल स्पर्शनम्,
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प्रियम् ।। ३३ ।।
अन्वयार्थ -- -(मित-स्थित-नखाङ्गजं ) जिनके शरीर के नख और
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केश प्रमाण में स्थित हैं अर्थात् अब केवलज्ञान होने के बाद वृद्धि को प्राप्त नहीं होते हैं (गत रजो मल स्पर्शनं ) जो रज और मल के स्पर्श से रहित है ( नव-अम्बुरुह-चन्दन-प्रतिम - दिव्य- गन्ध - उदयम् ) जिनके नवीन कमल और चन्दन की गन्ध के समान दिव्य गन्ध का उदय हैं । ( रवि इन्दुकुलिश - आदि- दिव्य - बहुलक्षण - अलंकृतं ) जो सूर्य, चन्द्रमा तथा वज्र आदि दिव्य लक्षणों से सुशोभत है और ( दिवाकर सहस्र- भासुरम् अपि ईक्षणानां प्रियम् ) जो सहस्त्रों / हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान होने पर भी नेत्रों के लिये प्रिय है ।
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भावार्थ - हे भगवान! केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् आपका शरीर समस्त धातु - उपधातुओं से रहित परमौदारिक अवस्था को प्राप्त हो जाता है । परमौदारिक शरीर में आपके नख और केश पूर्ववत् ही रहते हैं अर्थात् बढ़ते नहीं हैं। आपके दिव्य शरीर से नवीन विकसित कमल व चन्दन की दिव्य सुगन्ध सदा निकलती रहती है। आपका दिव्य परमशरीर इन्दु / चन्द्र, सूर्य, वज्र, वस्त्र आदि १००८ शुभ लक्षणों से अलंकृत है तथा हजारों सूर्यो की दीप्ति को एक समय में ही प्राप्त होकर भी भव्यजनों के नेत्रों को अति प्रिय हैं। जहाँ संसारी जीव एक सूर्य के तेज को भी देखने में असह्य है, अप्रियता का अनुभव करता है वहाँ उसे आपकी हजारों सूर्यो की कान्ति भी निनिमेष दृष्टि से देखने को बाध्य करती है। ऐसे महादिव्यरूप के धारक हे विभो ! मुझे पवित्र कीजिये ।