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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
के समय जीव सरल - परिणामी थे अतः एकमात्र सर्वसावध निवृत्ति रूप मात्र एक प्रकार के चारित्र का ही उपदेश उन्हें दिया गया ।
किन्ही विद्वानों के अनुसार अथवा अन्यत्र प्रसिद्ध गुरु उपदेशानुसार वृषभदेव व महावीर स्वामी ने ही छेदोपस्थापना चारित्र का उपदेश दिया अन्य २२ तीर्थंकरों ने नहीं। क्योंकि आदिनाथ तीर्थंकर के समय जीव भद्र परिणामी थे अतः ग्रहण किये चारित्र में दोष लग जाते थे और महावीर भगवान् के समय में जीव वक्र परिणामी हैं अतः ग्रहण किये चारित्र में दोष लग जाते हैं। यही वजह रहा कि उन्हें छेदोपस्थापना चारित्र का उपदेश देना पड़ा । २२ तीर्थंकरों के समय जीव सभ्य, समभावी रहे, उनके द्वारा गृहीत संयम में कभी दोष नहीं लगता था अतः छेदोपस्थापना चारित्र के उपदेश की उन्हें आवश्यकता ही नहीं रही ।
मुक्ति का साक्षात् कारण चारित्राचार हैं, चारित्राचार की आराधना के बिना तीर्थकर भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाते । क्षायिक सम्यक्त्व की व क्षायिक ज्ञान / केवलज्ञान की पूर्णता हो जाने पर भी क्षायिकचारित्र, यथाख्यातव्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान की पूर्णता के बिना मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। अतः तीर्थंकरों के द्वारा भी आचरणीय ऐसे चारित्राचार को आचार्य देव नमस्कार करते हैं ।
पञ्चाचार पालने वालों की वन्दना
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आचारं सह पश्चभेदमुदितं तीर्थं परं मंगलम्, निर्मन्यानपि सच्चरित्रमहतो, वंदे समप्रान्यतीन् । आत्माधीन सुखोदया - मनुपमां लक्ष्मीमविध्वंसिनीम्, इच्छन्केवलदर्शनावगमन, प्राज्य प्रकाशोज्वलाम् ||८|| अन्वयार्थ - ( आत्माधीन सुख - उदयां ) आत्माश्रित सुख के उदय से सहित (अनुपमां ) उपमारहित ( केवलदर्शन - अवगमन-प्राज्य-प्रकाशउज्ज्वलां) केवलदर्शन और केवलज्ञान रूप उत्कृष्ट प्रकाश से उज्ज्वल ( अविध्वंसिनी ) अविनाशी (लक्ष्मी) मोक्षलक्ष्मी की ( इच्छन् ) इच्छा करता हुआ मैं ( परं तीर्थमङ्गलम् ) उत्कृष्ट तीर्थ तथा मङ्गलरूप ( उदितं ) कहे गये ( सह पञ्चभेदं ) पाँच भेदों से सहित ( आचारं ) आचार को तथा ( सच्चरित्रमहतः ) सम्यक् चारित्र से महान् ( समग्रान् ) सम्पूर्ण ( निर्मन्थान् ) परिग्रहरहित ( यतीन् अपि ) मुनियों को भी ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ ।