________________
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३३३ दिगम्बर महासाधु शरीर में ममत्वरहित हो, संसार के भोगों की आशंका से रहित होकर ग्रीष्म ऋतु में जेठ मास में सूर्य किरणों के समूह से संतप्त शिलाओं के समूह से युक्त, पर्वतों के शिखरों पर सूर्य की प्रचण्ड किरणों के सामने खड़े हो आतापन योग धारण कर घोर तपश्चरण करते हैं। मुनिराज भयंकर आतप की वेदना कैसे सहते हैं ?
| মল্লিকা सज्ज्ञानामृतपाथिभिः, क्षान्तिपयः सिच्यमानपुण्यकायैः । धृतसंतोषच्छत्रकैः, तापस्तीतोऽपि सह्यते मुनीन्द्रैः ।।४।।
अन्वयार्थ ( सत् ज्ञान-अमृत-पायिभिः ) जो मुनिराज निरन्तर सम्यक् ज्ञानरूपी अमृत का पान करते हैं (क्षान्तिपय-सिझ्यमान-पुण्यकायैः । क्षमारूपी जल से जिनका पुण्यमय/पुनीत/पवित्र शरीर सींचा जा रहा है ( धृत-सन्तोष-छत्रकैः ) जिन्होंने सन्तोषरूपी छत्र को धारण किया है, ऐसे (सुनी-: ) मसाबुन के द्वारः ( सीधः अपि ताप: ) घोर संताप भी ( सह्यते) सहन किया जाता है।
भावार्थ-संसार-शरीर-भोगों से विरक्त दिगम्बर महामुनि सतत सम्यक्ज्ञान-रूपी अमृत का पान करते हुए ऊंचे-ऊँचे शिखरों पर ज्येष्ठ मास की गर्मी में आतापन योग धारण करते हैं। क्योंकि उन्होंने अपने बाह्य शरीर को क्षमारूपी जल से सींचा है और अन्तरंग में सन्तोषरूपी छ. की छाया को प्राप्त किया है । सत्य है ऐसे सन्तों के द्वारा ही उपसर्ग-परीषह आदि को साम्य भाव से सहन किया जा सकता है ।
वर्षा ऋतु में मुनिराज क्या करते हैं ?
शिखिगलकज्जलालिमलिन, विबुधाधिपचापचित्रितैः, भीमरवैर्विसृष्टचण्डा शनि, शीतल वायु वृष्टिभिः । गगनतलं विलोक्य जलदैः, स्थगितं सहसा तपोधनाः, पुनरपि तरुतलेषु विषमासु, निशासु विशंकमासते ।।५।।
अन्वयार्थ-( शिखिगल-कज्जल-अलिमलिनैः ) मयूर के कण्ठ, काजल और भ्रमर के समान काले ( विबुध-अधिप-चाप-चित्रितैः ) जो