________________
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ३३१
श्री योगि भक्ति कैसे साधु वन का आश्रय लेते हैं ?
दुबई छन्द जातिअरोरुरोग मरणातुर, शोक सहस्रदीपिताः, दुःसहनरकपतन सन्त्रस्तधियः प्रतिबुद्धचेतसः । जीवितमंबु बिंदुचपलं, तडिदभ्रसमा विभूतयः, सकलमिदंविचिन्त्यमुनयः, प्रशमायवनान्तमाश्रिताः ।।१।।
अन्वयार्थ-मुनिराज ( जाति जरोरुरोग-मरण-आतुर-शोक सहस्रदीपिता: ) जन्म-जरा-विशाल रोग और मरण से दुखी होकर जो हजारों शोकों से प्रज्वलित हैं, ( दुःसहनरकपतन संत्रस्तधियः ) असह्य वेदना युक्त घोर नरकों में गिरने के दुःखों से जिनकी बुद्धि अत्यन्त पीड़ित भयभीत हैं तथा ( प्रतिबुद्धचेतसः ) जिनके हृदय में हेय-उपादेय का विवेक जागृत हो रहा है ( जीवितम् अम्बुबिन्दुचपलं ) जो जीवन को जल की बिन्दु के समान अत्यन्त चंचल तथा ( तडित् अम्र समा विभूतयः ) संसार की समस्त विभूतियों को बिजली व मेघ के समान क्षणिक हैं ( इदं सकलं ) यह सब ( विचिन्त्य ) विचार कर ( प्रशमाय ) आत्मिक, अलौकिक शान्ति के लिये ( वनान्तम् आश्रिताः ) वन के मध्य में आश्रय लेते हैं।
भावार्थ--मुनिराज संसार के जन्म-जरा-मरण इष्ट वियोगज-अनिष्ट संयोगज रूप सहस्रों दुःखों से नरक की असह्य वेदनओं से भयभीत हो, संसार की बिजली व बादल सम क्षणस्थायी विभूतियों को त्यागकर तथा जीवन को जलबिन्दु सम निर्णय कर अनन्त अलौकिक आत्मिक शान्ति की प्राप्ति के लिये वन का आश्रय लेते हैं। वन में जाकर साधु क्या करता है ?
भद्रिका छन्द व्रतसमिति गुप्ति संयुताः, शमसुखमाधाय मनसि वीतमोहाः। ध्यानाध्ययनवशंगताः, विशुद्धये कर्मणां तपश्चरन्ति ।।२।।
अन्वयार्थ ( वौतमोहा: ) नष्ट हो चुका है मोह जिनका ऐसे वे मुनिराज ( व्रत-समिति-गुप्ति-संयुताः ) पाँच महाव्रत, पाँच समितियों,