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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
का वर्णन करते हुए सूत्र दिया - प्रायश्चित्तविनयवैय्यावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ अर्थात् १. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैयावृत्ति ४. स्वाध्याय ५. कायोत्सर्ग और ६. ध्यान। यह क्रम उत्तरोत्तर अधिकाधिक निर्जरा का हेतु होने के पक्ष की सिद्धि करता है। आगम में भी अन्तरङ्ग तपों का यही क्रम प्रसिद्ध है। यहां पूज्यपाद स्वामी को छन्दकला की रक्षार्थ क्रम का व्यतिक्रम करना पड़ा है। तप दुधारू गाय की तरह द्विगुणित लाभ का संकेत करता है, जैसा कि कहा भी है- " तपसा निर्जरा च" तप के द्वारा कर्मों का संवर व निर्जरा दोनों ही होते हैं। पञ्चम काल में "स्वाध्याय परमो तपः " स्वाध्याय परम तप है क्योंकि इसके करने से मन-वचन-काय तीनों एकाग्र हो जाते हैं। इस काल में शुक्लध्यान का अभाव ही है, धर्म्यध्यान के बल से आज भी जीव रत्नत्रय की शुद्धि करके लौकान्तिक, इन्द्र आदि पदों को प्राप्त कर सकता है।
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वीर्याचार का स्वरूप
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सम्यग्ज्ञान विलोचनस्य दधतः, श्रद्धानमर्हन्मते, वीर्यस्याविनिगूहनेन तपसि स्वस्य प्रयत्नाद्यतेः । या वृत्तिस्तरणीव नौरविवरा, लध्वी भवोदन्धतो, वीर्याचारमहं तमूर्जितगुणं वन्दे सतामर्चितम् । । ६ । । अन्वयार्थ - ( सम्यक्ज्ञान विलोचनस्य ) सम्यक् ज्ञानरूपी नेत्र से युक्त तथा ( अर्हत् मते ) अर्हन्त देव के मत में/ जिनशासन में ( श्रद्धानम् दधतः ) श्रद्धान को रखने वाले ( यते ) मुनि के ( स्वस्य वीर्यस्य ) अपनी शक्ति को ( अविनिगूहनेन ) नहीं छिपाने से ( प्रयत्नात् ) प्रयत्नपूर्वक ( तपसि ) तप के संबंध में ( या वृत्तिः ) जो प्रवृत्ति हैं, वह ( अविवरा लध्वी ) छिद्र रहित छोटी ( नौ: इव) नौका के समान ( भव उदन्वतः तरणी ) संसार सागर से पार करने वाली नौका है, यही वीर्याचार है । ( ऊर्जितगुणं ) प्रबल गुणों से सहित ( सताम् अर्चितम् ) सज्जनों के पूज्य ( तं वीर्याचारं ) उस वीर्याचार को मैं ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ ।
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भावार्थ — जिस प्रकार लोक व्यवहार में समुद्र पार करने के लिए छिद्ररहित नौका आवश्यक है उसी प्रकार संसार समुद्र से पार करने के लिये वीर्याचाररूपी नौका आवश्यक हैं। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन सहित