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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य और ८ प्रभावना । यहाँ ८ अंगों के क्रम में छन्द की मर्यादावश व्यतिक्रम हुआ हैं, परन्तु क्रम को यथाभ्यस्त दृष्टि में रखते हुए यथायोग्य पालन करना भव्यात्माओं का कर्तव्य हैं ।
यहाँ पूज्यपाद स्वामी आचार्य ने पञ्चम अंग का नाम उपबृंहण दिया है जिसका अर्थ होता है- अपने रत्नत्रय रूप गुणों को बढ़ाने का पुरुषार्थ / प्रयत्न करना । इसी पञ्चम अंग का नाम रत्नकरंड श्रावकाचार में श्री
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समन्तभद्र आचार्यजी ने “उपगूहन" दिया है। जिसका अर्थ है-- धर्मात्माओं, रत्नत्रयधारियों के द्वारा कर्मवशात् कोई दोष हो जावे तो उसका गोपन करना। वैसे भी उपगूहन यह प्रचलित नाम है ।
ऐसे अष्ट अंग सहित दर्शनाचार की मैं [ पूज्यपाद ] आदर से नतमस्तक हो वन्दना करता हूँ ।
तपाचार ( बाह्यतप) का स्वरूप
एकान्ते शयनोपवेशन कृतिः संतापनं तानवम् संख्या- वृत्ति निबन्धना मनशनं विष्वाण मदोंदरम् । त्यागं चेन्द्रिय- दन्तिनो मदयतः स्वादो रसस्यानिशम्,
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षोद्धा बाह्य महं स्तुवे शिव गति प्राप्त्यभ्युपायं तपः || ४ ||
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अन्वयार्थ - ( शिवगति प्राप्ति अभि उपायं ) मोक्षगति की प्राप्ति के उपायभूत ( एकान्ते शयन उपवेशन कृतिः ) एकान्त स्थान में शयनआसन करना ( तानवं सन्तापनं ) शरीर को संतापित करना अर्थात् कायक्लेश करना ( वृत्ति-निबन्धनां संख्या ) चर्या में कारण-भूत संख्या को नियमित करना ( अनशनं ) उपवास करना, ( अद्ध उदरम् विष्वाणं ) ऊनोदर आहार करना (च ) तथा (इन्द्रिय दन्तिनः मदयतः स्वादः रसस्य अनिशं त्यागं ) इन्द्रियरूपी हाथियों के मद को बढ़ाने वाले स्वादिष्ट रसोंका हमेशा त्याग करना, ये ( षोढ़ा बाह्यं तपः ) छः प्रकार के बहिरंग तप हैं ( अहम् स्तुवे ) मैं इनकी स्तुति करता हूँ।
भावार्थ - कर्मों के क्षय के लिये जो तपा जाता है वह तप कहलाता है । तप मोक्ष प्राप्ति में साधकतम करण है। तप के दो भेद हैं एक बहिरंग, दूसरा अन्तरङ्ग । बहिरंग तप के छह भेद हैं— अनशन, कनोदर,