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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
कर्ता ( भगवता ) भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा ( अर्थव्यञ्जनतद्वयाविकलता ) अर्थ - अविकलता, व्यञ्जन अविकलता, अर्थव्यञ्जन अविकलता ( कालोपधा प्रश्रयाः ) कालशुद्धि, उपधान शुद्धि व विनय ( स्त्र- आचार्य आदि - अनपह्नवः ) अपने आचार्य आदि का नाम नहीं छिपाना (च) और ( बहुमति: ) बहुमान ( इति ) इस प्रकार ( अष्टधा व्याहृत्तम् ) आठ प्रकार से कहे गये ( ज्ञानाचारं ) ज्ञानाचार को ( अहं ) मैं ( कर्मणाम् उद्धूतये ) कर्मों के क्षय करने के लिये ( त्रिधा ) मनवचन काय से ( अञ्जसा प्रणिपत्तामि ) सम्यक् प्रकार से नमस्कार करता हूँ ।
भावार्थ -- अन्तरङ्ग अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य तथा बहिरंग समवशरण विभूति से शोभा को प्राप्त श्री ज्ञातृवंश के उद्योत करने के लिये चन्द्रमास्वरूप अवसर्पिणी काल में अन्तिम धर्म तीर्थकर्ता श्री वर्धमान भगवान् ने ज्ञानाचार के आठ अंग कहे हैं
१. अर्थाचार - आगम के अर्थ, पद तथा वाक्यों के शुद्ध अर्थ का
अवधारण करना ।
२. व्यञ्जनाचार — आगम के पद, वाक्यों, अक्षरों का शुद्ध उच्चारण
करना ।
३. अर्थव्यञ्जन शुद्धि / उभयाचार - अर्थ - पद व शब्दों आदि का शु उच्चारण व निर्दोष अवधारण करना ।
४. कालाचार -- आगम ग्रन्थों को तीन संध्याओं, ग्रहण, उल्कापात, अतिवृष्टि आदि निषिद्ध कालों में स्वाध्याय न करने योग्य काल में स्वाध्याय
करना ।
५. उपधानाचार – स्वाध्याय प्रारम्भ होने पर समाप्ति पर्यन्त कोई विशेष नियम लेना, तथा शास्त्रों पर कँवर आदि लगाना, ग्रंथ नाभिसे ऊँचा रखकर स्वाध्याय करना आदि ये उपधानाचार के स्वरूप हैं ।
६. विनयाचार – योग्यक्षेत्र तथा काल में श्रुतभक्ति- आचार्यभक्ति आदि रूप कृतिकर्म करके विनयपूर्वक स्वाध्याय करना ।