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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३२७ भावार्थ-ये दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, वीर्याचार और चारित्राचार रूप पंचाचार संसाररूपी महार्णव से पार होने के लिये घाट सम होने से परमतीर्थ हैं, अत: पंचाचार मंगलरूप हैं। जिस प्रकार तीर्थ का आश्रय लेने वाला, तीर्थं की वन्दना करने वाला जीव जन्म-मरण के चक्कर से छूटकर संसार-समुद्र से तिर जाता है, उसी प्रकार पंचाचाररूपी तीर्थ का आश्रय लेने वाला भी संसाररूपी तीर को पा जाता है अत: पंचाचार मंगल रूप उत्तम तीर्थं हैं। इन पंचाचारों का सदा उत्साहपूर्वक आचरण करने वाले मुनिराज भी मंगलस्वरूप हैं । मैं आत्माश्रित अनन्तसुख केवलज्ञान, कवलदर्शन रूप उत्कृष्ट ज्योति व अविनाशी मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति करने के लिये उस पञ्चाचार को सदा नमस्कार करता हूँ | तथा उसके आराधक मुनियों को भी नमस्कार करता हूँ |
__ चारित्र पालने में दोषों की आलोचना अज्ञानाघदवीवृतं नियमिनोऽधर्तिष्यहं चान्यथा, तस्मिर्जितमस्याति प्रतिनवं, चैनो निराकुर्वति । वृत्ते सप्ततयी निधिं सुतपसामृद्धिं नयत्यद्भुतं, तन्मिथ्या गुरुदुष्कृतं भवतु मे, स्वनिदितो निंदितम् ।।९।।
अन्वयार्थ—मैंने ( अज्ञानात् ) अज्ञान से ( नियमिनः ) मुनियों को ( यत् ) जो ( अन्यथा अवीवृत्तं ) आगमानुकूल प्रवृत न करा प्रतिकूल प्रवृतन कराया हो (च) अथवा ( अवतिषि अहं) मैंने स्वयं आगम के प्रतिकूल वर्तन किया हो ( तस्मिन् ) उस अन्यथा वर्तन में ( अर्जितम् एन: ) संचित पापों को ( अस्याति ) नष्ट करने वाले ( च ) और ( प्रतिनवं ) प्रतिक्षण नवीन-नवीन बँधने वाले ( एनः ) पापों को ( निराकुर्वति ) निराकरण करने अर्थात दूर करने वाले ( सुतपसां ) श्रेष्ठ तपस्वियों की '( अद्भुतं निधि सप्ततयीं ऋद्धिं ) आश्चर्यकारी निधिरूप सात प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त कराने वाले ( वृत्ते ) ग्रहण किये संयम में जो अन्यथा प्रवृत्ति हुई है ( निन्दितम् ) निन्दा के पात्र ( स्वं) अपने आपकी ( निन्दित; ) निन्दा करने वाले ( मे ) मेरे ( तत् ) वह ( गुरु-दुष्कृतं ) भारी पाप ( मिथ्या भवतु ) मिथ्या हो।
भावार्थ-चारित्र की शुद्धि प्रायश्चित, आलोचना, निन्दा गर्दा आदि