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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
कृतकृत्य गुण को प्राप्त होता है तथा जो (ऋजु-विपुलमति - विकल्पं ) ऋजुमति व विपुलमति दो भेद रूप है, उस ( मन:पर्ययज्ञानम् ) मन:पर्ययज्ञान की ( स्तौमि ) मैं स्तुति करता हूँ ।
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भावार्थ - मन:पर्ययज्ञान दूसरे के मन में स्थित सरल व कुटिल पदार्थों को विषय करता है। यह कर्मभूमिया संयमी मुनियों के ही उत्पन्न होता हैं। उनमें भी विशेष चारित्र के आराधक छठें से १२ गुणस्थानवर्ती मुनिवर के ही होता है। इस ज्ञान के ऋजुमति व विपुलमति ऐसे भेद जानना चाहिये |
केवलशान की स्तु
क्षायिक - मनन्तमेकं त्रिकाल - सर्वार्थ युगपदवभासम् ।
सकल सुख-धाम सततं वन्देऽहं केवलज्ञानम् ।। २९ ।।
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अन्वयार्थ – ( क्षायिकम् - अनन्तम् ) जो ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्राप्त होने से क्षायिक है, कभी नाश न होने से अनन्त है जो ( एकं ) एक अद्वितीय है, जिसके साथ कोई क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रहता ( त्रिकालसर्वार्थ - युगपत् - अवभासम् ) जो तीनों कालों सम्बन्धी समस्त पदार्थों का एक साथ जानता है (सकलसुखधाम ) पूर्ण सुखों का स्थान है, ऐसे ( केवलज्ञानम् ) केवलज्ञान को ( अहम् ) मैं ( सततम् ) हमेशा ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ ।
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भावार्थ - केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है। यह ज्ञानावरण के अत्यन्त क्षय से उत्पन्न हुआ निर्मल, विशुद्ध व अनन्त है। यह असहाय ज्ञान है इसे पर - इन्द्रिय आदि की अपेक्षा नहीं हैं। यह सकल पारमार्थिक है त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य उनके अनन्त गुण और अनन्त पर्यायों को यह ज्ञान हस्तामलकवत् जानता है । आत्मा में इसके उदय होने पर क्षायोपशमिक ज्ञानों का अभाव हो जाता है।
स्तुति के फल की प्रार्थना
एवमभिष्टुतो मे ज्ञानानि समस्त लोक चक्षूंषि । लघु भवताञ्ज्ञानद्धिर्ज्ञानफलं सौख्य मच्यवनम् ।। ३० ।। अन्वयार्थ – ( एवम् ) इस प्रकार ( समस्त लोक चक्षूंषि ) तीनों लोकों
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