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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ३१७ के नेत्रस्वरूप ( ज्ञानानि ) मति आदि ज्ञानों की ( अभिष्टवत: ) स्तुति करने वाले ( मे ) मुझे ( लधु ) शीघ्र ही ( ज्ञानफलं ) ज्ञान का फल ( ज्ञान-ऋद्धिः ) ज्ञानरूप ऋद्धि व ( अच्यवनम् सौख्यम् ) अविनाशी सुख ( भवतात् ) प्राप्त हो ।
भावार्थ-इस प्रकार यद्यपि मैंने सामान्य से पाँचों ज्ञानों की व विशेष रूप से श्रुतज्ञान की इस श्रुतभक्ति में स्तुति की है। इस स्तुति को करने वाले मुझ पूज्यपाद को केवलज्ञान ऋद्धि व अविनाशी सिद्ध पद, जो अनन्त सुखरूप है उसकी प्राप्ति हो ।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! सुदभत्ति-काउस्सग्गो को तस्सालोचेलं, अंगोवंगपडण्णए पाहुडय-परियम्म-सुत्त-पढमाणिओग-पुख्यगय- चूलिया चेव सुत्तत्थय-थुइ-धम्मकहाइयं णिच्यकालं अच्चमि, पुज्जमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइ-गमणं, समाहिमरणं, जिण-गुण-संपत्ति होदु मझं।
अन्वयार्थ ( भंते ) हे भगवन् ! मैंने ( सुदभत्ति-काउस्सग्गो कओ ) श्रुतभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया । ( तस्सालोचेउं इच्छामि ) उसकी आलोचना करने की मैं इच्छा करता हुँ । ( अंगोवंगपइण्णए ) अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक ( पाहुडयोप्राभृत ( परियम्म ) परिकर्म ( सुत्त ) सूत्र ( पढमाणिओग ) प्रथमानुयोग ( पुवगय ) पूर्वगत ( चूलिया ) चूलिका ( चेव ) तथा ( सुत्तत्थयथुइ ) सूत्र, स्तव, स्तुति व ( धम्मकहाइयं ) धर्मकथा आदि की ( णिच्चकालं ) नित्यकाल/सदा ( अच्चेमि ) अर्चा करता हूँ ( पुज्जेमि ) पूजा करता हूँ, ( वंदामि ) नमस्कार करता हूँ। [ इनकी स्तुति, पूजा आदि के फलस्वरूप ] मेरे ( दुक्खक्खओ) दु:खों का क्षय हो, ( कम्मक्खओ) कर्मों का क्षय हो, ( बोहिलाहो) रत्नत्रय की प्राप्ति हो, ( सुगइगमणं ) सुगति में गमन हो ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो ( मज्झं ) मुझे ( जिनगुणसंपत्ति ) जिनेन्द्र देव के गुणों का लाभ हो।
___ भाषार्थ हे भगवन् ! मैं श्रुतभक्ति के माध्यम से अंग-उपांग, प्रकीर्णक, प्राभृत, परिकर्म प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका, सूत्र, स्तव, स्तुति व