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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ३१५ मर्यादा कही गई है अर्थात् जो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की मर्यादारूपी द्रव्य को विषय करता है । प्रत्यक्षं) अक्ष याने इन्द्रिय आदि की अपेक्षा न रखकर जो मात्र अक्ष याने आत्मा से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष है । ( च ) और जो ( सप्रभेदं ) अवान्तर भेदों से सहित है। ( देशावधिपरमावधि-सर्वावधिभेदं ) देशावधि-परमावधि-सर्वावधि भेदों से सहित ( ते अविधं ) उस अवधिज्ञान को ( अभिवन्दे ) नमस्कार करता हूँ।
प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद हैं- १. सांव्यवहारिक २. परमार्थिक । जो ज्ञान इन्द्रिय प्रकाश आदि की सहायता के बिना मात्र आत्मा से ही उत्पत्र होता है वह ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भी २ भेद हैं—१. विकलपारमार्थिक २. सकल पारमार्थिक । अवधिज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान होने से व मात्र रूपी पदार्थों को ही ज्ञान का विषय करने से विकलपारमार्थिक है। अवधिज्ञान--"अव-नीचे-धि" ज्ञान अर्थात जिसका ज्ञान नीचेनीचे अधिक है वह अवधिज्ञान है । इसके क्षयोपशम की अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। क्योंकि जघन्य देशावधिज्ञान का क्षेत्र सूक्ष्म निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना प्रमाण है और उत्कृष्ट क्षेत्र-लोक प्रमाण है। तथा इस ज्ञान के देशावधि, परमावधि व सर्वावधि तीन भेद हैं । देशावधि चारों गति के जीवों को होता है। परमावधि व सर्वावधि उत्कृष्ट चारित्रधारक संयमी मुनियों के ही होता है ।
देशावधि के गुणप्रत्यय व भवप्रत्यय दो भेद हैं । गुणप्रत्यय ६ भेद रूप है वर्धमान, हीयमान, अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित व अनवस्थित । भवप्रत्यय में भी गुणप्रत्यय की छह अवस्थाएँ पाई जाती हैं। परन्तु यह मात्र देव-नारकियों के ही होता है । इस विशुद्धि प्राप्त अवधिज्ञान की मैं अभिवन्दना करता हूँ।
. मन:पर्ययज्ञान की स्तुति परमनसि स्थितमर्थमनसा परिविद्यमन्त्रि-महित-गुणम् । ऋजु-विपुलमति-विकल्पं स्तौमि मनःपर्ययज्ञानम् ।। २८ ।।
अन्वयार्थ-(परमनसि ). दूसरे के मन में ( स्थितम् अर्थम् ) स्थित रूपी पदार्थ को ( परिविद्यमंत्रिमहितगुणम् ) जानकर जो महर्षियों से पूजित