________________
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका और ३, प्रमाणपद । इनमें जितने अक्षरों से वक्ता का अभिप्राय प्रकट होता हो ऐसे अनियत अक्षरों के समूह या वाक्य को अर्थ पद कहते हैं, जैसेअग्नि लाओ, पानी छानकर पीओ, मन्दिर जाओ आदि । आठ, चौदह आदिक अक्षरों के समूह को प्रमाणपद कहते हैं, जैसे अनुष्टुप श्लोक के एक पाद में ८ अक्षर होते हैं, वसन्ततिलका के एक पाद में १४ अक्षर होते हैं । इसमें अक्षरों का प्रमाण उस-उस छन्द के अनुसार न्यूनाधिक होता है । परन्तु मध्यम पद में कहे गये १६३४८३०७८८८ अक्षरों का प्रमाण हमेशा के लिये निश्चित है।
जिनागम में २७ स्वर, ३३ व्यञ्जन, ४ अयोगवाह इस प्रकार ६४ मूल अक्षर माने गये हैं। इनका विरलन कर, उसके ऊपर दुआ माँडकर परस्पर गुणा करने पर श्रुतज्ञान का प्रमाण १८४४६७४४०७३ ७० १.१ ६.१५ कोर संट अपन्न न कम एकती प्रमाण है। समस्त श्रुत के इन अनुरुक्त अक्षरों में मध्यमपद का भाग देने पर जो लब्ध आता है वह द्वादशांग का प्रमाण व शेष अंग बाह्य/प्रकीर्णक का प्रमाण आता
अंगबाह्य के भेदों की स्तुति सामायिकं चतुर्विंशति-स्तवं वन्दना प्रतिक्रमणम् । वैनयिकं कृतिकर्म च पृथु-दशवकालिकं च तथा ।। २४।। वर-मुत्तराध्ययन-मपिकल्पव्यवहार-मेव-ममिवन्दे । कल्पाकल्पं स्तौमि महाकल्पं पुण्डरीकं च ।। २५।। परिपाट्या प्रणिपतितोऽस्म्यहं महापुण्डरीकनामैव । निपुणान्यशीतिकं च प्रकीर्णकान्यंग-बाह्यानि ।।२६।।
अन्वयार्थ-(प्रणिपतितः अहम् ) नम्रीभूत हुआ मैं ( परिपाट्या ) परिपाटी क्रम से ( सामयिकं ) सामायिक ( चतुर्विंशतिस्तवं ) चतुर्विंशतिस्तव ( वन्दना ) वन्दना ( प्रतिक्रमणम् ) प्रतिक्रमण ( वैनयिकं ) वैनयिक ( च ) और कृतिकर्म ( पृथुदशवैकालिकम् ) विशाल दशवकालिक ( तथा च ) और ( वरम् ) उत्कृष्ट ( उत्तराध्ययनम् अपि ) उत्तराध्ययन को भी ( एवम् ) इसी प्रकार ( कल्पव्यवहारम् ) कल्प-व्यवहार को ( अभिवन्दे ) नमस्कार करता हूँ।