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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३०५ श्रुतज्ञान के क्षयोपशम को लन्धि कहते हैं। जिस ज्ञान का कभी नाश नहीं होता उसको अक्षर कहते हैं। यह ज्ञान अक्षर का अनन्तवाँ भाग है, इसका कभी नाश नहीं होता । यह ज्ञान सक्ष्मनिगोदिया लब्ध्य-पर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के पहले समय होता है। यह ज्ञान अक्षर का अनन्तवाँ भाग होकर सदा निरावरण होता है। इसका जीव के कभी अभाव नहीं होता । यदि इसका अभाव हो जाय तो जीव का ही अभाव हो जाय ।
पर्याय ज्ञान के ऊपर और अक्षर श्रुतज्ञान से पहले तक पर्यायसमास ज्ञान कहलाता हैं | अकार, आकार आदि श्रुतज्ञान को अक्षर श्रुतज्ञान कहते हैं । यह अक्षर श्रुतज्ञान सूक्ष्मनिगोदिया लब्यपर्याप्तक के अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरों के बराबर होता है [ ध.पु. १३, पृ. २६४] 1 अक्षरज्ञान के ऊपर पद श्रुतज्ञान से नीचे श्रुतज्ञान के समस्त भेद अक्षर समास हैं ।
जिससे अर्थ का बोध हो सो पद है-... अर्थपद १. पद प्रमाणपद । अक्षर समास के ऊपर एक अक्षरज्ञान के बढ़ने पर यह पद ज्ञान होता है । पद नामक श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर-प्रमित श्रुतज्ञान के बढ़ने पर पदसमास नामक श्रुतज्ञान होता है ।
एक गति का निरूपण करने वाला संघात नामक श्रुतज्ञान है । एक मध्यमपद के ऊपर भी एक-एक अक्षर की वृद्धि होते हुए संख्यात हजार पदों की वृद्धि जिसमें हो वह संघात नामक श्रुतज्ञान है । संघात श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञान की वृद्धि होने पर संघात समास नामक ज्ञान होता है।
संख्यात संघात श्रुतज्ञानों का आश्रयकर एक प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है। अथवा जितने पदों के द्वारा चार गति, मार्गणा का प्ररूपण हो वह प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान है। इसमें एक अक्षर प्रमाण वृद्धि होने पर प्रतिपत्तिक समास श्रुतज्ञान होता है संख्यात प्रतिपत्तिक का श्रुतज्ञान का एक अनुयोग श्रुतज्ञान होता है अथवा चौदह मार्गणाओं से प्रतिबद्ध जितने पदों के द्वारा अर्थ जाना जाता है उतने पदों से उत्पन्न श्रुतज्ञान को अनुयोग कहते है । अनुयोग के ऊपर अक्षर की वृद्धि होने पर अनुयोग समास श्रुतज्ञान होता है । अनुयोग के ऊपर क्रम से एक-एक अक्षर की वृद्धि होते हुए चतुरादि