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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका पदानुसारि बुद्धि ऋद्धि-जिस बुद्धि में ग्रन्थ का प्रथम या अन्तिम पद ग्रहण करने से ही पूर्ण ग्रन्थ का ज्ञान हो जावे उसे पदानुसारि बुद्धि ऋद्धि कहते हैं।
संभनिश्रोतृत्वमाख—एक ही समय में होने वाले अनेक शब्दों को एक साथ अलग-अलग जिस बुद्धि विशेष से जाना जाता है उसे संभिन्नश्रोतबुद्धि ऋद्धि कहते हैं । चक्रवर्ती के १२ योजन लम्बे और नौ योजन चौड़े सैन्य में रहने वाले मानव, पशु, पक्षी आदि सभी की अक्षरात्मक अनक्षरात्मक भाषा को एक साथ अलग-अलग जान लेना इस ऋद्धि का कार्य है।
इन सबके साथ ही मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है । क्योंकि उमास्वामि आचार्य ने लिखा है—"श्रुतमतिपूर्व' मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार अनेक भेदों से शोभायमान, ऋद्धियों से युक्त ऐसे इस मतिज्ञान को मैं नमस्कार करता हूँ।
श्रुतज्ञान की स्तुति श्रुतमपि-जिनवर-विहितं गणधर-रचितं त्यनेक- भेदस्थम् । अंगांगबाह्य-भावित-मनन्त-विषयं
नमस्यामि ।।४।। अन्वयार्थ-जो ( जिनवर विदितं ) जिनेन्द्र देव के द्वारा अर्थरूप जाना गया है ( गणधररचितं ) गणधरों के द्वारा जिसकी रचना की गई है, ( द्वि-अनेक-भेद-स्थम् ) जो दो और अनेक भेदों में स्थित है, ( अङ्ग-अङ्ग बाह्य भावितं ) जो अङ्ग और अङ्ग बाह्य के भेद से प्रसिद्ध है तथा ( अनन्तविषयं ) अनन्त पदार्थों को विषय करने वाला है ( श्रुतम् अपि ) उस श्रुतज्ञान को भी ( नमस्मामि ) मैं नमस्कार करता हूँ। ___भावार्थ-जो श्रुतज्ञान अर्थरूप से जिनेन्द्रदेव के द्वारा निरूपित है, अर्थ व पद रूप से जिसकी अंग रूप में रचना गणधर देवों ने की है तथा जो अङ्ग प्रविष्ट व अङ्ग बाह्य रूप दो व अनेक भेद वाला है अनन्त पदार्थों को विषय करने वाले उस श्रुतज्ञान को मैं नमस्कार करता हुआ । इनमें अर्थ रूप ज्ञान “भावश्रुत' है और शब्दरूप ज्ञान द्रव्यश्रुत है।
द्रव्यश्रुत की अंग प्रविष्ट व अङ्ग बाह्य संज्ञा का हेतु क्या है ? अङ्गबाह्य द्वादशांग में गर्भित है या नहीं ? ऐसी शंका होने पर आचार्य देव उत्तर देते हुए कहते हैं