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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका श्री श्रुतभक्ति
आर्या
संज्ञानानि
स्तोष्ये परोक्ष - प्रत्यक्ष भेदभिन्नानि । लोकालोक - विलोकन- लोलित सल्लोक- लोचनानि सदा ।। १ ।।
अन्वयार्थ - ( लोक- अलोक-विलोकन- लोलित - सत्लोक- लोचनानि ) लोक और अलोक को देखने में उत्सुक / लालायित सत्पुरुषों के नेत्रस्वरूप ऐसे ( परोक्ष- प्रत्यक्ष भेद- भिन्नानि ) परोक्ष और प्रत्यक्ष के भेद से युक्त ( संज्ञानानि ) सम्यक् ज्ञानों की [ मैं पूज्यपाद आचार्य ] ( सदा ) हमेशा ( स्तोष्ये ) स्तुति करूँगा । अथवा
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भावार्थ – सम्यक्ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद हैं। जैसे जीव को नेत्रों के द्वारा घट-पट आदि पदार्थों का ज्ञान होता है, वैसे ही भव्यजीवों को मतिज्ञान - श्रुतज्ञान- अवधि- ज्ञान, मनः मन:पर्ययज्ञान केवलज्ञान इन पाँच समीचीन ज्ञानों से लोक व अलोक का पूर्ण ज्ञान होता है अतः आचार्य देव पूज्यपाद स्वामी यहाँ प्रतिज्ञा वाक्य में कहते हैं- ऐसे समीचीन ज्ञानों की मैं सदा स्तुति करता हूँ / उन्हीं का स्तवन करूँगा ।
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मतिज्ञान की स्तुति
अभिमुख - नियमित बोधन-माभिनियोधिक-मनिन्द्रियेन्द्रियजम् । बह्वाद्यवग्रहादिक - कृत त्रिंशत् - त्रिशत भेदम् ।। २ ।। विविधन्द्धि - बुद्धि- कोष्ठ- स्फुट - बीज पदानुसारि बुद्धयधिकम् । संभिन्न श्रोत् तया, सार्धं श्रुतभाजनं वन्दे || ३ ||
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अन्वयार्थ – जो ( अभिमुख - नियमित - बोधनं ) योग्य क्षेत्र में स्थित स्पर्श आदि नियमित पदार्थों को जानता है ( अनिन्द्रिय-इन्द्रियजं ) मन व इन्द्रियों से उत्पन्न होता है व ( बहु-आदि- अवग्रह- आदिक कृत- षट्त्रिंशत त्रिशतभेदम् ) बहु आदि १२ व अवग्रह आदि ४ की अपेक्षा से ३३६ भेदों से सहित हैं । (विविध ऋद्धि-बुद्धि-कोष्ठ स्फुट - बीज- पदानुसारि - बुद्धिअधिकम् ) जो अनेक प्रकार की ऋद्धि से सम्पन्न तथा कोष्ठबुद्धि, स्फुटबीजबुद्धि और पदानुसारिणी बुद्धि से अधिक परिपूर्ण हैं तथा ( संभिन्न श्रोतृतया सार्ध ) संभित्र श्रोतृऋद्धि से सहित है ( श्रुत-भाजनं ) श्रुत ज्ञान की उत्पत्ति
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