________________
२९०
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका महानद के उत्तम तीर्थ में अवगाहन करने वाले, डुबकी लगाने वाले अपने पापों को क्षय करने की प्रार्थना आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने की है।
जिनरूप स्तवन
पृथ्वी-छन्द अताम्र-नयनोत्पलं सकल-कोप-वो-जयात्, कटाक्ष - शर • मोक्ष - हीन - मविकारतोद्रेकतः । विषाद-मद-हानितः प्रहसितायमानं सदा, मुखं कथयतीव ते हृदय-शुद्धि-मात्यन्तिकीम् ।। ३१।।
शा --हे प्रभो (कल बोग-तहे-लयात ) सम्पूर्ण क्रोधरूपी अग्नि को जीत लेने से ( अताम्र-नयन-उत्पलं ) जिनके नेत्र रूप कमल लाल नहीं हैं ( अविकारत:-उद्रेकतः ) विकारी भावों का उद्रेक नहीं होने से ( कटाक्ष-शर-मोक्षविहीनं ) जो कटाक्ष रूप बाणों के छोड़ने से रहित हैं तथा ( विषाद-मद-हानित: ) खेद व अहंकार का अभाव होने से जो ( सदा-प्रहसितायमानं मुखं ) सदा हँसता हुआ-सा ज्ञात होता है ऐसा आपका मुख ( ते ) आपको ( आत्यन्तिकी हृदय शुद्धिम् ) अत्यंत/सर्वोकृष्ट। अविनाशी हृदय की शुद्धि को ही ( कथयति इव ) मानो कह रहा है।
भावार्थ हे प्रभो ! संसारी जीवों के नेत्रों में लालिमा क्रोध के कारण आती है, उस क्रोध का आपके पूर्ण अभाव होने से आपके नयनकमल लाल नजर नहीं आते हैं। संसारी जीव विकारी भावों से पीडित हो कटाक्ष रूप बाण छोड़ते हैं, आपके विकार का पूर्ण अभाव है अत: आप कभी भी कटाक्ष रूप बाणों को नहीं छोड़ते हैं तथा संसारी जीवों के मुख पर मलिनता, खेद या मद से ही होती है परन्तु आपके हर्ष-विषाद या
खेद-मद आदि १८ दोषों का ही अभाव हो चुका है अत: आपका सदा हँसता हुआ प्रसन्न मुख ही मानो आपकी अन्तरंग अत्यन्त/अविनाशी शद्धि का कथन करता है। अर्थात हे प्रभो! आप क्रोध-मान-चिकारी भाव आदि विभाव परिणतियों से रहित अन्तरंग में व बाह्य में आत्यन्तिक शुद्धता को प्राप्त कर चुके हैं । ऐसी विशुद्धता की सूचना आपकी मुखाकृति कर रही है।