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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ-( श्रीमत् मेरौ ) श्री-शोभा सम्पन्न मेरु पर्वतों पर ( कुलाद्रौ ) कुलाचलो पर ( रजतगिरि वरे ) विजयार्द्ध पर्वतों पर ( शाल्मलौ ) शाल्मलि वृक्षों पर ( जम्बूवृक्षे ) जम्बू वृक्ष पर ( वक्षारे ) वक्षारगिरियों पर ( चैत्यवृक्षे ) चैत्यवृक्षों पर ( रतिकर रुचके ) रतिकर और रुचकगिरि पर ( कुण्डले मानुषाङ्के) कुण्डलगिरि और मानुषोत्तर पर ( इष्वाकारे ) इष्वाकार पर्वतों पर ( अञ्जनाद्रौ ) अजनगिरियों पर ( दधिमुखशिखरे ) दधिमुख पर्वतों के शिखरों पर ( व्यन्तरे ) व्यन्तरों के आवासों पर ( स्वर्गलोके ) स्वर्गलोक में ( ज्योतिलोंके ) ज्योतिष्क देवों के लोक में तथा ( भुवनमहितले ) भवनवासियों के भवनों में ( यानि चैत्यालयानि ) जितने चैत्यालय हैं ( तानि अभिवन्दे) उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ---श्रीमंडप की शोभा से सम्पन्न मेरु के ८०, कुलाचलों के ३०, विजयाद्ध के १७०, शाल्मलि वृक्षों के ५, जम्बूवृक्ष पर ५, वक्षार.. गिरियों के ८०, रुचकगिरि के ४, कुण्डलगिरि के ४, मानुषोत्तर के ४, इष्वाकार के ४, रतिकर पर्वत, अञ्जनगिरियों व दधिमुख शिखरों पर ५२ चैत्यालयों, व्यन्तरों के असंख्यात जिनालयों, स्वर्गलोक के ८४९७०२३ जिनालयों, भवनवासियों के ७ करोड ७२ लाख जिनालयों तथा ज्योतिष्क देवों के आवासों में शोभायुक्त जिनालयों को मैं अच्छी तरह से मनसावचसा-कर्मणा नमस्कार करता हूँ। देवा सुरेन्द्र नर-नाग-समर्चितेभ्यः, पापप्रणाशकर भव्य मनोहरेभ्यः । घंटाध्वजादि परिवार विभूषितेभ्यो, नित्यं नमोजगति सर्वजिनालयेभ्यः ।।६।। ___अन्वयार्थ—( देव-असुरेन्द्र-नर-नाग-समर्चितभ्यः ) देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्र ने जिनकी सम्यक् प्रकार से पूजा की है जो ( पापप्रणाशकर ) पापों का नाश करने वाले हैं ( भव्य मनोहरेभ्यः ) भव्य जीवों के मन को आकर्षित करते हैं ( घंटाध्वजा-आदि परिवार विभूषितेभ्यो ) घंटा-ध्वजामाला-धूपघट, अष्टमंगल, अष्टप्रातिहार्य आदि मंगल वस्तुओं के समूह से सुसज्जित है।अलंकृत हैं ऐसे ( जगति) तीन लोक में स्थित ( सर्वजिनालयेभ्यः ) सभी जिनमन्दिरों के लिये ( नित्यं ) प्रतिदिन/प्रत्येक काल याने सदा सर्वदा ( नमः ) नमस्कार हो ।