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विमल जान प्रबोधिनी टीका
२९३ हितार्थ-परिपन्थिभिः प्रबल-राग-मोहादिभिः, कलंकितमना जनो यदभवीक्ष्य शोशुख्यते । सदाभिमुख-मेव यज्जगति पश्यतां सर्वतः, शरद्-विमल-चन्द्र-मण्डल-मिवोत्थितं दृश्यते ।।३४।।
अन्वयार्थ --( हितार्थ-परि-पथिभिः ) प्राणियों का सर्वोत्कृष्ट हित मोक्ष है, उसका विरोधी ( प्रबल-राग-मोहादिभिः ) प्रबल शत्रु राग-द्वेष मोह आदि से ( कलङ्कितमना जनः ) कलुषित हृदय वाले मानव भी ( यत् ) जिनको ( अभिवीक्ष्य ) देखकर ( शोशुयते ) अत्यन्त निर्मलता को प्राप्त होता है ( जगति ) संसार में ( सर्वतः पश्यताम् ) चारों ओर से देखने वालों को, ( यत् सदाभिमुखमेव ) जो सदा सामने ही ( उत्थितं ) उदय को प्राप्त ( शरद्-विमल-चन्द्र-मण्डलम्-इव ) शरद ऋतु के चन्द्रमण्डल के समान ( दृश्यते ) दिखाई देता है।
भावार्थ-हे वीतराग प्रभो ! प्राणियों का उत्तम हित मोक्ष की प्राप्ति है। उस मुक्ति की प्राप्ति के प्रबल विरोधी शत्रु राग-द्वेष-मोह आदि हैं। राग-द्वेष-मोह से कलुषित हृदय वाले जीव भी आपके मुख की अपूर्व वीतरागता को देखकर अत्यन्त शुद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। हे प्रभो ! समवशरण में आपका वह प्रशान्त रूप चारों दिशाओं में दिखाई पड़ता है । अत: वह रूप संसार के जो भव्यजीव आपके दर्शन के इच्छुक हैं उन्हें अपने सामने ही दिखाई पड़ता है। तथा आपका दिव्य शरीर शरद् ऋतु में मेघ-पटल से रहित निर्मल आकाश में उदय को प्राप्त निर्मल चन्द्रमंडल की तरह अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। ऐसा दिव्य अनुपम मुझे सदा पवित्र करे।
तदेत - दमरेश्वर - प्रचल - मौलि - माला - मणि, स्फुरत् - किरण - चुम्बनीय - चरणारविन्द - द्वयम् । पुनातु भगवजिनेन्द्र तव रूप- मन्धीकृतम्, जगत् - सकल - मन्यतीर्थ - गुरु - रूप - दोषोदयः ।। ३५।।
अन्वयार्थ ( भगवत्-जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र देव ! ( अमर-ईश्वरप्रचल मौलि-मणि-स्फुरत्-किरण-चुम्बनीय-चरणारविन्द-द्वयम् ) देवों के स्वामी इन्द्रों के चलायमान/ नम्रीभूत मुकुटों की मालाओं में लगी मणियों