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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका की स्फुरायमान/चमकती हुई किरणों से जिनके दोनों चरण-कमल चुम्बित हो रहे हैं। स्पर्शित किये गये हैं ( एतत्-तद तव रूपम् ) ऐसा यह आपका रूप ( अन्यतीर्थ-गुरुरूप-दोष-उदयः ) मिथ्या/अन्यतीर्थ-कुगुरुकुदेव आदि उपदेशों के दोषों के उदय से ( अन्धीकृतं ) अन्ध किये गये ( सकलम् जगत् ) पूर्ण संसार को ( पुनातु ) पवित्र करे ।
भावार्थ हे भगवन् ! हे जिनेन्द्रदेव १०० इन्द्रों से वन्दनीय आपके पावन चरण-कमलों का दर्शन प्राप्त कर संसार के समस्त प्राणी मिथ्यात्व का वमन कर सम्यक्त्व को प्राप्त करें । पञ्चमकाल में साक्षात् अरहंत-देव का दर्शन दुर्लभ है, ऐसे समय में एकमात्र स्थापना निक्षेप ही हमारे परिणामों की निर्मलता का सम्बल है अत: यहाँ आचार्यदेव साक्षात् अरहन्त के अभाव में स्थापना निक्षेप से युक्त वीतराग प्रतिमाओं को ही साक्षात् जिनेन्द्र मानकर सुन्दर स्तवन किया है।
क्षेपक श्लोकाः मानस्तम्भाः सरांसि प्रविमलजल, सत्खातिका पुष्पवाटी , प्राकारो नाट्यशाला द्वितयभुपवनं, वादकांत जाधाः । शालः कल्पनुमाणां सुपरिवृत्तवनं, स्तूपहावली च , प्राकारः स्फाटिकोन्तनृसुरमुनिसभा, पीठिकाग्रे स्वयंभूः ।।१।।
अन्वयार्थ-तीर्थंकर प्रभु की समवशरण सभा में ( मानस्तम्भा: ) मानस्तम्भ ( सरांसि ) सरोवर ( प्रविमल जल सत्खातिका ) निर्मल स्वच्छन्द जल से भरी हुई खातिका भूमि ( पुष्पवाटी ) उद्यानभूमि ( प्राकारो-नाट्यशाला ) कोट, नाटकशाला ( द्वितीयमुपवनं ) दूसरा उपवन वेदिका-अन्तर्ध्वजाद्याः ) वेदिका के मध्य ध्वजा व पताकाएँ ( शालः ) कोट ( कल्पद्रुमाणां ) कल्पवृक्ष ( सुपरिवृत्तवनं ) चारों ओर से वनों से घिरा हुआ ऐसा कोट ( स्तूपहावली च ) स्तूप और प्रासादों की पंक्ति ( स्फाटिकः अन्त -नृसुरमुनिसभा ) स्फटिक की दीवालों के मध्य मनुष्य-देव व मुनियों की इस प्रकार बारह सभाएँ तथा { पीठिका-अग्रे-स्वयंभू ) सिंहासन पर अधर स्वयंभू-साक्षात् तीर्थकर भगवान् विराजमान हैं।
भावार्थ-तीर्थकर भगवान केवलज्ञानोत्पत्ति के बाद १३वें गुणस्थान में अन्तरङ्ग में अनन्त-चतुष्टय व बहिरंग में समवशरण लक्ष्मी से शोभायमान