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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
उपजाति त्रिलोक-राजेन्द्र किरीट-कोटि-प्रभाभि-रालीढ-पदार-विन्दम् । निर्मूल-मुन्मूलित-कर्म-वृक्ष,जिनेन्द्र-चन्द्रं प्रणमामि भक्त्या ।।१७।। __अन्वयार्थ--( त्रिलोक-राजेन्द्र-किरीट-कोटि-प्रभाभिः-आलीढपदारविन्दम् ) तीनों लोकों के अधिपति, राजा, महाराजा और इन्द्रों के करोड़ों मुकुटों की प्रभा से जिनके चरण-कमल सुशोभित हो रहे हैं ( निमूल उन्मूलित कर्मवक्षम् ) जिन्होंने कर्मरूपी वृक्ष को जड़ से उखाड़ दिया है या निर्मूल कर उखाड़ दिया है, ऐसे ( जिनेन्द्रचन्द्रं ) चन्द्रमा के समान शीतलता
शान्ति देने वाले जिनेन्द्र देव को अथवा चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र को ( भक्त्या प्रणमामि ) मैं भक्ति से प्रणाम करता हूँ।
भावार्थ---जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, मुकुटधारी राजा महाराजा चक्रवर्ती व इन्द्र आदि जिनके चरणों में नतमस्तक हैं, जिन्होंने कर्मवृक्ष को जड़ से उखाड़ दिया है, ऐसे चन्द्रसम शीतलता/शान्तिदायक श्री जिनदेव या चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र को मैं भक्ति से प्रणाम करता हूँ।
आर्या करचरणतनुविधाता, दटतो निहितः प्रमादतः प्राणी । ईर्यापथमिति भोत्या, मुझे तदोषहान्यर्थम् ।।१८।।
अन्वयार्थ-(प्रमादतः अटत: ) प्रमाद से गमन करते हुए मेरे ( करचरण-तनु-विघातात् ) हाथ-पैर अथवा शरीर के आघात से ( प्राणी निहत) प्राणी का घात हुआ है ( इति ) इस प्रकार ( भीत्या ) भय से ( तद्योषहान्यर्थम् ) उस प्राणीघात से उत्पत्र दोषों की हानि के लिये ( ईर्यापथं ) ईर्यापथ को अर्थात् गनम को ( मुञ्चे ) छोड़ता हूँ।
भावार्थ-हे स्वामिन् ! गनम करते हुए प्रमाद से अपने हाथ-पैर या शरीर के द्वारा किसी प्राणी का हनन/ घात हुआ है, इस भय से मैं अब गमन की क्रिया में लगे दोषों का नाश करने के लिये गमन का त्याग करता हूँ । गमन काल में लगे दोषों का पश्चात्ताप करता हूँ। ईपिथे प्रचलताऽध मया प्रमादा-देकेन्द्रिय प्रमुख जीव निकायपाषा । निवर्तिता यदि भवेदयुगान्तरेक्षा, मिथ्या- तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितोमे ।।१९।।