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सिद्धभक्ति
स्रग्धरा सिद्धा - नुघूत - कर्म - प्रकृति
समुदयान् साधितात्मस्वभावान्, वन्दे सिद्धि-प्रसिञ्जय तदनुपम
गुण - प्रग्रहाकृष्ट . तुष्टः। सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः,
प्रगुण-गुण-गणोच्छादि-दोषापहाराद्, योग्योपादान - युक्त्या दृषद्,
इह यथा हेम - ‘भावोपलब्धिः ।।१।। अन्वयार्थ (तत्-अनुपम-गुण-प्रग्रह-आकृष्टि-तुष्टः ) सिद्ध भगवान् के उन प्रसिद्ध उपमातीत गुण रूपी रस्सी के आकर्षण से संतुष्ट हुआ मैंपूज्यपाद आचार्य ( उद्धृत-
ककृति-समुदधान् । नष्ट कर दिया है अ कर्मों की प्रकृतियों के समूह को जिन्होंने तथा ( साधित-आत्मस्वभावन् ) प्राप्त कर लिया है आत्मा के ज्ञान-दर्शन आदि स्वभाव को जिन्होंने ऐसे ( सिद्धान् ) सिद्ध भगवानों को ( सिद्धि-प्रसिद्धयै ) स्व आत्मा की सिद्धि/ मुक्ति की प्राप्ति के लिये ( वन्दे ) वन्दना/नमस्कार करता हूँ। ( इह ) इस लोक में ( यथा) जिस प्रकार ( योग्य-उपादान-युक्त्या ) योग्य उपादान व निमित्त अथवा अन्तरंग-बहिरंग कारणों की संयोजना से ( दृषदः ) स्वर्णपाषाण ( हेमभाव-उपलब्धिः ) स्वर्ण पर्याय को प्राप्त होता है, उसी प्रकार ( प्रगुणगुणगणो च्छादि-दोष-अपहरात् । श्रेष्ठतम ज्ञानादि गुणों के समूह को आवृत करने वाले ज्ञानावरणादि कर्मों अथवा राग-द्वेष-मोह आदि दोषों के क्षय हो जाने से ( स्व-आत्मा उपलब्धिः ) अपने शुद्ध आत्मस्वरूप-वीतराग, सर्वज्ञ, अविनाशी, अनन्त, आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाना ( सिद्धिः ) मुक्त अवस्था कही गयी है।
भावार्थ-जिस प्रकार स्वर्णपाषाण में शुद्धस्वर्ण पर्याय प्राप्त करने की योग्यता है किन्तु किट्ट-कालिमा आदि से युक्त होने से वह शुद्धपर्याय प्रकट नहीं हो पाती। जब बुद्धिमान व्यक्ति १६ ताव देकर उसे अग्नि से