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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका के समस्त प्राणियों के ( ईश भावं ) ईश्वरत्व/स्वामीपने को ( कुर्वन् ) करते हुए ( अपरं ज्योति: अभिभवन् ) सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रादि की अन्य ज्योति को अपनी ज्योति से पराभूत करते हुए और ( आत्मानम् ) अपनी आत्मा का (क्षणं ) प्रतिक्षण ( आत्मनि) अपनी आत्मा में ( एव ) ही ( आत्मना) आता के द्वः.. (काल ) निमन करते हुए ( सत् प्रवृतः ) समीचीन रूप में प्रवृत हुए थे।
भावार्थ-शुद्ध आत्मा परके उपदेश आदि की अपेक्षा के बिना ही स्वयं मोक्षमार्ग को जानकर तथा उस मोक्षमार्ग का अनुष्ठान कर अनन्तज्ञान स्वरूप हो जाता है, उस समय उस परम शुद्ध आत्मा को स्वयंभू कहते हैं। अथवा जो स्वयं हों वे स्वयंभू कहलाते हैं। यह आत्मा अपने रत्नत्रय गुणों की पूर्णता से अनंतज्ञानी होता हुआ अरहंत पद पर प्रतिष्ठित होता हैं। इसीलिये भगवान् अरहंत देव को स्वयंभू कहते हैं।
स्वयंभू भगवान् अरहंत अवस्था को प्राप्त कर समस्त लोक व अलोक को एक साथ जानते-देखते हैं । कृतकृत्य हो जाने के कारण पूर्ण तृप्ति को प्राप्त हो जाते हैं । अनन्तकाल तक अपने आत्मा में लीन रहते हैं अथवा वे अरहंत देव केवलज्ञान के द्वारा अनन्त काल तक समस्त लोकालोक को जानते देखते रहते हैं।
मोह रूप महांधकार का नाश करते ही केवलज्ञान सूर्य को प्राप्त कर वे अरहंत देव अपनी समवसरण सभा में या गंधकुटी रूप सभा में अमृतसम सप्ततत्त्वमयी दिव्यध्वनि रूपी वचनामृत से कल्याणकारी उपदेश देकर सभासदों को अत्यंत संतुष्ट करते हैं। तीनों लोकों का प्रभुत्व प्राप्त कर वे अरहंत देव बारह सभा में समस्त प्रजा के मध्य विराजित होकर अपनी केवलज्ञान ज्योति से अपने आप को असर्वज्ञ अवस्था में ही ईश्वर मानने वाले अथवा अन्य के द्वारा असर्वज्ञता में ही ईश्वरत्व माने हुए ईश्वर के ज्ञानरूप तुच्छ ज्योति को भी तिरस्कृत करते हुए तथा अपनी अनुपम कांति से चन्द्रसूर्य आदि को छविहीन करते हैं। मात्र ज्ञाता-दृष्टा बनकर आत्मस्वभाव की सिद्धि करने वाले वे अरहंत प्रभु अपने आत्मा को अन्य किसी के पदार्थ में न लगाकर शुद्ध आत्मा को शुद्ध आत्मा में ही प्रतिक्षण निमान करते हैं।