________________
२६८
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
( तब सिद्धाणं ) तप सिद्धों को ( णय सिद्धाणं ) नय सिद्धों को ( संजमसिद्धाणं ) संयम सिद्धों को ( चरितसिद्धाणं ) चारित्र सिद्धों को ( अतीत- अणागद वट्टमाण-कालत्तय-सिद्धाणं ) भूत भविष्य व वर्तमान तीनों कालों में होने वाले सिद्धों को ( सव्वसिद्धाणं ) समस्त सिद्ध परमात्माओं को ( णिच्चकालं ) सदा काल / हर समय ( अच्चेमि ) मैं अर्चा करता हूँ, ( पुज्जेमि) पूजा करता हूँ, ( वंदामि ) वन्दन करता हूँ ( णमस्सामि ) नमस्कार करता हूँ ( दुक्कखक्खओ ) मेरे दुःखों का क्षय हो ( कम्मक्खओ ) कर्मों का क्षय हो, बोहिलाको ) रत्न की प्राप्ति हो ( सुगमणं) उत्तम गति में गमन हो ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो ( जिनगुणसम्पत्ति ) जिनेन्द्र देव के गुणों की सम्पत्ति (मज्झ होऊ ) मुझे प्राप्त हो ।
भावार्थ - हे भगवन् ! मैं सिद्धभक्ति संबंधी कायोत्सर्ग को करके उसमें लगे दोषों की आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। जो सिद्ध परमात्मा रत्नत्रय से मंडित हैं, अष्टकर्मों से रहित हैं सम्यक्त्व दर्शन, ज्ञान सुख, अव्याबाध, अगुरुलघु, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व आदि आठ गुणों से शोभायमान हैं लोकाग्र में विराजमान हैं, ऐसे तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, संयम से सिद्ध, चारित्र से सिद्ध होने वाले त्रिकाल सिद्धों को समस्त सिद्धों की मैं प्रत्येक समय अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ मेरे समस्त दुःखों को क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, उत्तम देवादि मोक्षगति में गमन हो, समाधिमरण हो । हे भगवन्! हे जिनदेव ! आपके समान अनन्त गुण रूपी सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो। मैं भी आप के समान अनन्त गुणों का स्वामी बन परमपद को प्राप्त होऊं ।
।। इति श्री सिद्धभक्ति ।।