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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका यहाँ आचार्य देव का तात्पर्य है---इस संसार में अष्टकर्मरूपी रज से मलीन जीव, जन्म-जरा-मृत्यु से पीड़ित हो निरन्तर दुखी है, यदि यह शाश्वत अनुपम सुख की प्राप्ति करना चाहता है तो जिनदेव, जिनधर्म, जिनागम व केवलज्ञान की भक्ति, स्तुति, आराधना करें, इनकी आराधना से भिन्न कोई मुक्ति मार्ग नहीं है।
२. दश-पद-स्तोत्रम् पञ्च परमेटियों को नमस्कार
आर्या छन्द अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च सायुभ्यः । सर्व-जगद्-वन्धेभ्यो नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्यः ।।४।।
अन्वयार्थ—( सर्व-जगत्-वन्देभ्यः ) तीन लोक के समस्त प्राणियों से वन्दनीय ( सर्वेभ्य: ) समस्त ( अर्हत्-सिद्ध-आचार्य-उपाध्यायेभ्यः ) अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय ( तथा च ) और ( साधुभ्यः ) साधुओं के लिये ( सर्वत्र ) जहाँ-जहाँ विराजमान हैं ( नमः अस्तु ) मेरा नमस्कार हो ।
भावार्थ-तीन लोकों के समस्त प्राणियों से वन्दनीय अरहन्तसिद्ध-आचार्य-उपाध्याय व साधु पंच परमेष्ठी भगवान ढाई द्वीप में जहाँजहाँ विराजमान हैं, सबको मेरा नमस्कार है।
अरहंतों को नमस्कार मोहादि-सर्व-दोषारि-घातकेभ्यः सदा हत-रजोभ्यः, विरहित-रहस्-कृतेभ्यः पूजाहेभ्यो नमोऽर्हद्भ्यः ।।५।।
अन्वयार्थ-( मोह-आदि-सर्व-दोष-अरि-घातकेभ्यः ) मोह आदि अर्थात् राग-द्वेष-क्रोधादि अथवा दर्शनमोह व चारित्रमोह आदि व सर्व दोष-१८ दोषों रूपी शत्रुओं का क्षय करने वाले/नाश करने वाले ( हतरजोभ्यः ) ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्मरज को नष्ट करने वाले व ( विरहितरहस्कृतेभ्यः ) नष्ट कर दिया है अन्तराय कर्म को जिन्होंने ऐसे ( पूजा अहेभ्यः ) पूजा के योग्य ( अर्हद्रय: ) अरहंत परमेष्ठी के लिये ( सदा नमः । सर्वकाल नमम्कार हो ।